सबक
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
दीदी मैंने इनसे पहिले कहा था, पप्पू को न भेजो। नया -नवाड़ा सीधा लड़का है। कभी बाहर आया -गया नहीं, सो छल कपट क्या जाने ? पर ये..... कभी मेरी बात नहीं मानते। मानते होते तो यह चोट क्यों लगती ?
पत्नी सरला ने आँखें तरेर कर, सारा दोष अपने पति कैलाशनाथ के मत्थे मढ़ दिया। पति कैलाशनाथ ने प्रतिरोध करते हुये पप्पू की हिमायत की और समझाते हुए कहा- “मालती, पप्पू अब नया-नवाड़ा नहीं है। कुछ बातों में, हमसे आगे ही है। रहा सवाल बाहर का सो दिल्ली, हरिद्वार, इलाहाबाद आदि अनेकों शहर घूम चुका है। गिनों तो दस से अधिक नाम हांेगे।”
-“वाह रे भोलेनाथ तुम्हारी लीला भी अपरम्पार है। सौ की जगह दस। रास्ते के स्टेशन क्यों छोड़ दिये ? दीदी मैं बताऊँ...ये तब के नाम गिना रहे हैं, जब सबजने तीर्थ यात्रा पर गये थे। यह कैसे ये भूल गये, पप्पू अकेला नहीं .....हम सबके साथ गया था।”
सरला ने व्यंग्य भरे लहजे में पुनः उन्हें दबोच लिया।
‘‘अब जब तुमने ठान ही लिया है कि मैं ही इस हादसे का कसूरवार हूँ, तो तुम्हें भगवान भी नहीं समझा सकता। मेरा चुप रहना ही बेहतर है।’’ कैलाशनाथ ने आत्म समर्पण के भाव में कहा।
“चुप रहना ही पडेगा। ...और आगे, इन रिश्तेदारों के सामने मेरा मुँह न खुलवाओ तो अच्छा है”। सरला ने जैसे अन्तिम चेतावनी दी।
सामंजस्यात्मक समीकरण समर्पित भाव से ही बनता है, अतः वही अंतिम उपाय करना, कैलाशनाथ ने उचित समझा। सरला की विधवा बड़ी बहिन मालती जिसे अभी तक दोनों जज अथवा मध्यस्थता की कड़ी बनाये थे, चुप थीं। कोई भी मंगल कार्य निरापद सम्पन्न हो, तभी शुभ माना जाता है। विध्न-बाधा से अशुभ। उनका दोष किसी न किसी के मत्थे मढ़ना हमारी परम्परा है।
मालती बोली -“सरला आप दोनों इस मामले मे बेचारे पप्पू को क्यों घसीट रहे हो ? वह तो एकदम निर्दोष है। सामान जिसकी लापरवाही से गया, उसी का दोष है। आजकल सफर में कोई भी बहू-बेटी गहने पहिनकर नहीं निकलतीं। यदि निकलीं भी तो सावधानी भी रखना होती है। इतनी बड़ी साड़ी रहती है - ढाँका जा सकता है। जया कह रही थी, पप्पू भैया ने बताया था कि भाभी का सिर खुला था। गर्दन डिब्बा के बाहर। अरे भाई, हार गले में चमचमाता है। वहाँ किसने नहीं देखा होगा ? नई बहू के गले में वजनी सोने का पहना हार ?”
मझली बहिन गिरजा ने भी दिल की भड़ास निकाल सहानुभूति जताई -“मायके का होता तो छिपाती। ससुराल का माल -इतना कीमती सोने का हार मास्टरानी के बाप दादाओं ने भी न देखा होगा। स्टेशन पर नुमाइश। हाय रे हाय हमारे जीजा जी- तो लुट गये। बरबाद हो गये। किस मनहूस घड़ी में ”...
अचानक उसे याद आया, ऐसा वैसा कहना ठीक नहीं था। यहाँ और कोई नहीं -यह छुटकी जया जरूर विष की पुडि़या बैठी है। उसे चमचागिरी की बुरी लत है। सो पुचकारकर प्यार से बोली -“जया बेटी, हम बहिनों की बातें किसी और से न कहना।”
जया ने सिर हिलाकर उसकी बात का अनुमोदन किया। संकेत दिया कि नहीं कहूँगी। गिरजा ने सतर्कता से यहाँ वहाँ देखते हुए अपना कहना जारी रखा।- “दीदी, पप्पू ने यह भी बताया, आभा को छोड़ने, माँं-भाई के अलावा एक लड़का और था। कौन था ? कैसी चाल चलन का था ? राम जाने। कहते है, आभा के साथ पढ़ता था। पूरा सिर, डिब्बा के बाहर उसी के लिये निकाल रखा था। दोनों में खुलकर हँसी मजाक हो रहा था। शादी के बाद, बहुओं के तौर-तरीकें बदल जाते हैं। शील, संकोच, लज्जा आ जाती है। पर हाय रे आज की कालेज की पढ़ाई। सब कुछ शादी के बाद भी “छिः“... ’’
गिरजा की यह बात और भाव -भंगिमा जया को असह्य हुई। वह भी कालेज की छात्रा है। बोली-“ कभी कालेज का मुँह देखा है ? डींगें ऐसी हाँक रही है जैसे कि कालेज की सभी बातें जानती हो। आज की लड़की अपने आप में इतनी आत्म निर्भर हो गई, छोटी-छाटी विपत्ति सहज झेल सकती। अपने दायरे की बातें अच्छी लगती है। बेकार की बातें अच्छी नहीं लगतीं। भाभी का एजुकेशन मालूम है ?..........साइंस पोस्ट ग्रेजुएट है।”
जया के बोलने पर गिरजा ने कहा-“सब मालूम है“ पर एक तरह से शिकस्त खा चुकी थी। अभी तक चुप बैठे, गिरजा के पति उमाकांत अपने साड़ू भाई के घरेलू मामले में हस्तक्षेप करने में हिचकिचा रहे थे। वे पुलिस महकमे में ए.एस.आई. हैं। तहकीकात करने के मोटे दाँव पेंचों से वाकिफ हैं। अतः कैलाशनाथ की ओर बोलने की स्वीकृति लेने की दृष्टि से देखा।
कैलाशनाथ हार की चोरी की बात सुनने के बाद से ही क्षुब्ध थे। अतः निश्चय ही कुछ अंश में उनका भी दोष है। इसलिये आँखें मूँद कर लेटे थे। पत्नी भी कसूवार उन्हीं को मानती है। फिर वह अपनी भड़ास निकालते हुए बोली- ”अपनी जिद् से वे चढ़ावे के लिये हार मेरे मना करने के बावजूद ले गये थे। यह सोचकर कि वहाँ मंडप में हमारी वाहवाही हो जायेगी और बहू जब दूसरी बिदा में घर आवेगी, तो किसी बहाने वापिस ले लेवेंगे। वहाँ से मिला तो कुछ भी नहीं, ऊपर से हार चला गया सो अलग। -अरे कौन देखता है ? हम क्या कर रहें, पर ये श्री मान् कहाँ माने बोले- अरे भाग्यवान, सब देखते हैं। उस समय जग हँसाई के डर से अपनी जिद पर न अड़े होते तो आज इतनी लम्बी चपत न लगती।’’
इधर गिरजा के दिमाग में, इस घटना के संदर्भ में जैसे कोई रहस्यमय साक्ष्य मिल चुका था, जिससे वे शिकस्त भाव दूर हो गये थे। उसने हाथ के इशारे से सरला को बुलाया और जिस छोर पर मालती बैठी थी, उसी के आजू-बाजू दोनों बैठ गईं। अब राज की बात करने में आसानी रहेगी। सिवा पति उमाकांत के और कोई नहीं सुन सकता। जया भी अब दूर है।
सब जहाँ बैठे हैं, वह पन्द्रह बाई बीस का हाल है। दो बडी खिड़की तरफ है। अन्तिम सिरे पर दीवान उस पर कैलाशनाथ लेटे हुये। आमने सामने दीवारों से सटीं कुर्सियों की कतार। प्रारम्भिक सिरे पर प्रवेश द्वार वाले छोर पर तीनों बहिनें बैठी हैं।
-‘हो न हो दीदी, अब मुझे ऐसा लगता है कि आभा की मास्टरनी माँं का मनगढ़ंत नाटक है। सुना है, वह बहुत चतुर है। शादी पक्की होने के बाद मुझे अपनी एक सहेली से कुछ बातें मालूम र्हुइं। अब उन्हें बताने का समय निकल चुका है। यदि अब बताऊँगी तो मझली दीदी तुम्हें और जीजाजी को दुख होगा।” गिरजा ने भूमिका के साथ मन की गाँठ खोली। गिरजा के कथन का तात्पर्य दोनों बहिनें न समझ पायीं। मालती ने डाँटते हुये कहा-“सीधी-सीधी बात कह। बात को घुमा-फिराकर करने की आदत पुलिस वालों की होती है। दिखता है, वह असर तुझ पर भी है। बेचारे वे तो चुप्पी साधे हैं। सीधी बात आगे कह”....
-“मेरी बात सीधी है। जल्दी दोनों समझ जाओगी। रही बात घुमा-फिराकर करने के लांछन की सो आज कल मैं वैसे भी कम बोलती हूँ । सुनो, मैं कान सुने का भरोसा नहीं करती। जो आँख से देखा, वही बता रही हूँ ।”
-“अब कह भी गिरजा।”-सरला ने उत्सुकता जताई। यहाँ बैठना उसे भारी लग रहा था, पर यह भी जबलपुर की है, जाने कौन सा राज बताये ? इसलिये रुक गयी थी।
गिरजा ने कहना शुरू किया-“सुनो दीदी, मेरे घर के सामने एक खत्री परिवार है। देखने में परिवार के सभी लोग बड़े भोले-भोले -मीठे लगते हैं। पर सबके पेट में दाँत हैं। उन्हें अपनी लड़की की शादी करना थी। पर पास में इतना धन नहीं कि लड़की निबटा सकें। हाँ, एक बाद जरूर है कि लड़की जरूर ‘हीरोइन’ सी है। एक इंजीनियर लड़का उन्हें फँस गया। सो हीरोइन ने अपना जादू चला दिया। बस लड़का बस में कर लिया घर वाले हाथ-पैर फड़फड़ाते रह गये। पर उसने चालाकी की। लड़के ने ऊपरी कमाई का कुछ पैसा अलग से बैेंक में गुप्त जमा किये थे, सो लड़की वालों को दे उनकी शोभा बढ़वा दी और अपने घर वालों को भी संतुष्ट कर लिया। मेरी बात पर भरोसा न हो तो ’इनसे’ पूछ लो। पूरी शादी में मुखिया तो ये ही थे।” इशारा पति की ओर किया।
“पर बात अभी भी कहाँ साफ हुई ?” मालती ने रुखाई से कहा।
“वही तो बता रही हूँ दीदी” आँखे घुमा-फिराकर गिरजा बोली- “ठीक वैसा ही काँड अपने घर में हुआ है। दीदी, लड़की देखने तुम तो गई नहीं थी। जीजा जी और शैलेष गये थे। पहिले तो शैलेष के मुँह से एक ही बात निकलती रही शादी नहीं करूँगा। पर वहाँ जब आभा को देखा तो पागल हो गया। मैंने तो यहाँ तक सुना मझली दीदी, कि उसने तुमसे भी दो टूक कह दिया कि शादी करूँगा तो आभा से। भले ही उसकी माँं उसे एक पीली साड़ी में बिदा कर दे। वाह रे साहबजादे..........उस विधवा मास्टरनी ने सोचा, अच्छे उल्लू पिता-पुत्र फँसे। अरे, अब किसी के घर बैठे कोई मुर्गा आ जाये तो उसे हलाल ही किया जाता है।” आभा ने भी अपना चमत्कार दिखा दिया।
” सरला खीझ चुकी थी। बोली-” कैसा चमत्कार बहन ? बात हार की थी।”
गिरजा मुँह बिचका कर बोली-“तुम अैार जीजाजी सारे जनम भोले रहे। अब तो चेत जाओ, लड़का ब्याह-वर लिया। कुछ तो समझदारी दिखाओ। .....प्राइमरी स्कूल की मास्टरनी ....वह भी विधवा....कितनी तनखा मिलती होगी ......लड़की लड़का पालपोस कितना जमा किया होगा ? और शादी में ऐसी रईसी....जैसे धन्नासेठ करते हैं। शादी का यह कर्ज कौन चुकायेगा ? अब भी समझी कि नहीं ? सारा कर्ज चुकायेगा, तुम्हारा तीस हजार का हार समझीं। मैंने जीजाजी को एक घर बताया था, लड़की भी इससे अच्छी थी। बेचारे मारुति कार भी दे रहे थे, एक लाख नगद और ढेर सारा सामान। पर उनकी आँख पर तो पर्दा डला था। बोले-गिरजा और शैलेष की इच्छा से ही शादी करूँगा। कर ली शैलेष की इच्छा पूरी ?”।
“अरी सिरफिरी” -इस बार मालती ने सरला की ओर से जवाब दिया। गिरजा ने आभा की विधवा माँं का जिस तरह भौंड़ी -आकृति बना उपहास किया था। वह उसे चुभी। आखिर उसकी बड़ी बहन भी तो विधवा है। ....
“बेवकूफ कहीं की हार तो स्टेशन पर सबके सामने-सरे आम झटका गया है। आभा माँं के कर्ज चुकाने के लिए घर पर नहीं छोड़ आयी थी ?..सरला, यह अभागिन तो सदा बज्र मूर्ख रही, न होती तो नवमीं से आगे न पढ़ लेती ?”
पति की उपस्थिति में अपनी योग्यता के अपमान से गिरजा तड़प सी गई। इसका उत्तर कभी न कभी बड़ी दीदी को जरूर दूँगी। वह बात पी गई। संतोष भी हुआ कि पति ने इसे अन्यथा न लिया होगा- क्यांेकि उनकी योग्यता तो उससे दो दर्जे कम ही है। उसने पति की ओर आत्मीयता की दृष्टि से देखा कि बड़ी दीदी की बात पर महत्व न देना। पति के सहज भाव से उसे तसल्ली हुई। बेसिर पैर की महिलाओं की बातों से वे जल्दी खीझ जाते हैं पर इस चर्चा की उद्घाटक तो उनकी प्रिय सहधर्मिणी है, इसलिये सहते रहे। इस गोपनीय मंत्रणा के समापन में अब हित है, सोचकर गिरजा ने कहा- “दीदी, यदि चोर फंदे में आ गया होगा, तो देख लेना कि मैंने जो कहा - वही बात सही थी।”
गिरजा की बात फिर भी दोंनो बहिनों के गले न उतरी।
आगे बढ़ने के पूर्व -इसका उद्गम भी जानना अवश्यक है। दुर्ग के कैलाशनाथ शर्मा के पुत्र शैलेष का विवाह कुछ दिन पूर्व जबलपुर की अरुणा शर्मा र्की पुत्री आभा से हुआ। मुहूर्त के अनुसार दूसरी बिदा कि लिये शैलेष का रिजर्वेशन कराया गया- किन्तु कार्यालय मंे आवश्यक कार्य आ जाने से वह न जा सका। अतः उसकी एवज में पप्पू उर्फ उमेश को तैयार किया गया। उम्र कम होते हुये भी कद काठी के हिसाब से शैलेष से इक्कीस था। यह विकल्प इसलिये अपनाया जिससे बिदा उसी मुहूर्त्त में हो। और जो मेहमान अभी घर में रुके थे, वे भी चाहते थे। बहू उनकी उपस्थिति में एक बार फिर आ जावे। वापसी में पप्पू को आभा के साथ, जबलपुर से गोंदिया होकर डोंगरगढ़ पहुँचना था- दुर्ग से शैलेष, बहिन बहनोई के साथ डांेगरगढ़ पहुँचते और पप्पू के साथ आयी आभा को उतार लेते। डोंगरगढ़ में देवी पूजन का कार्यक्रम था। पर जबलपुर में, यह हादसा घट गया। प्लेटफार्म से जैसे ही ट्रेन गंतव्य की तरफ बढ़ी। त्यों ही एक लड़का ट्रेन के साथ-साथ दौड़ा। आभा अपने आत्मीयजनों के बिछड़ने के पूर्व खिड़की से बाहर सिर निकाल कर अभिवादन कर रही थी। अचानक लड़के ने झपटट्ा मारा और आभा के गले का हार खींच लिया। जब तक वह सावधान हुई, तब तक ट्रेन बहुत दूर जा चुकी थी।
अब आगे .....।
उमाकांत ने अब हस्तक्षेप करना उचित समझा और कैलाशनाथ की तरफ देखा।
उमाकांत बोले -“भाई साहब, यदि आप पप्पू को बुलवा लें तो मैं अपने ढंग से तहकीकात कर लूँगा। जब से आया, एक बार भी सामने नहीं आया।”
कैलाशनाथ ने आँख खोली। चेहरा अपराध बोध से ग्रसित था “बुला लो,” फिर नन्हीं जया से बोले -‘जया, जा उसे लेकर आ “।
नन्हीं जया पप्पू को लेने गयी और खाली हाथ वापस आ गयी।
बोली -“पप्पू भैया कह रहे कि जा कह दे, मैं सो रहा हूँ।”
उमाकांत कौतूहल से जया को देखने लगे। जैसे कह रहे हों कि भाई यहाँ तो सोता व्यक्ति भी बात करता है। गजब है,...फिर त्योरियाँ चढ़ा, कड़ाई से बोले-“जा, उससे कह, मोसाजी बुला रहे।”
सरला ने बीच में हस्तक्षेप किया- “वह ऐसे नहीं आयेगा, भाई साहिब। जया, जा उससे कह टिंकू का फोन आया है। सिर के बल भाग कर आएगा।”
और सही में ऐसा ही हुआ। बुलाने गई जया बाद में आयी, पप्पू पहिले। हाल की आलमारी में टेलीफोन का रिसीवर यथा स्थान रखा देख चालाकी से बुलवाने की बात तुरंत भाँप गया। इसलिये उसके पैर वापसी के लिये बढ़े ही थे कि उमाकांत ने पुचकारा। पप्पू बेटे , एक मिनट के लिये हम लोगों के साथ बैठ ले, आ.....बैठ ...।
पप्पू ने सीधा सपाट कहा -“बैठूँगा नहीं... खड़ा हूँ। जो पूछना है -पूछिये इस जया को तो बाद में देखूँगा। मुझे नींद आ रही है।
पप्पू का यह अवज्ञा भरा रुख गिरजा को अच्छा नहीं लगा। नामी गिरामी अपराधी भी इनके सामने म्याँऊ-म्याँऊ करते हैं। और यह कल का छोकरा ऐसी हेकड़ी बता रहा।
“बस-चंद सवाल पूछूँगा ? फिर तेरी छुट्टी .....”
“पूछिये.....”?
“तुम लोग वहाँ से स्टेशन कब और कैसे आये ?....”,
“साढ़े चार बजे। दो रिक्शों पर। एक पर मैं और भाभी। दूसरे पर माता जी और राजीव।”
“और तीसरा....?” ‘तीसरा कौन ?...”
“जो प्लेटफार्म पर ट्रेन छूटते वक्त तक रहा।”
“वह ?..........भाभी का दूर का भाई था।”
“पर तुमने जया से कहा था, कि.....”
“वह झूठ बोलती है।“
जया ने टोंका -“पप्पू भैया, तुम बात बदल रहे हो। “
“अच्छा मान लो, मैंने कहा था कि वह भाभी के साथ पढ़ता था-वहाँ वे दोनों हँस कर बात कर रहे थे। सो इसमें क्या हुआ ?....वहाँ क्या रोते हुये बात करते ?“....तीनों बहिनें कुपित दृष्टि से पप्पू को देखने लगीं।
बिना किसी की परवाह किये, पप्पू उसी जल्दबाजी के लहजे में बोला- “और कुछ....? मैं जाता हूँ।”
अबकी बार बड़ी मोसी ने सहलाया-“रुक जा राजा भैया -बस थोडी देर और .........फिर तो हम सबको जाना ही है। जाने कब, हमस ब एक साथ मिलें।” पप्पू ने बड़ी मौसी की आत्मीयता का आदर किया।
“पूछिये....?.” उसने उमाकांत की ओर देखकर कहा। तुमने अगले स्टेशन पर रिपोर्ट क्यों नहीं की ?
“समय नहीं था। .....तीन चार मिनट में पुलिस चौकी ही ढूंढ पाते।”
“अच्छा, हार खींचने पर बहू के गले मे खरोंच तो आयी होगी।“
“हाँ.....कोई प्रेम से धीरे से तो उतार नहीं रहा था....झटके से तो खरोंच आयेगी ही।”
“कितने साल का लड़का होगा ?”
“जब तक मैंने झाँका.....ट्रेन काफी आगे बढ़ चुकी थी। उमर उन्नीस बीस.....भाभी ने बताया।”
“फिर रिपोर्ट कहाँ की ?”
“नैनपुर में.....वह भी लिखी गयी कि नहीं.........भगवान जाने..........आप अपने डिपार्टमेंट की सक्रियता तो जानते ही है” इस व्यंग्य से उमाकांत की भवें तन गईं।
“यहाँ फोन किया होता.....।”
“किया था.......एँगेज था........या लाइन खराब थी......मिल भी जाती तो क्या कर लेते........किसी के पास जादू का डंडा तो है नहीं कि यहीं से बैठकर घुमा देते....।” गिरजा को यह बात बुरी लगी।
”हम लोग सभी सबेरे से यहीं हैं। केवल तुम्हारे पिताजी, पंडितजी के यहाँ गये थे।”
“क्या बताया पंडित जी ने”।
“जाने के समय के नक्षत्र तो अच्छे हैं।”
“फिर क्यों आप लोग इतना चिंतित है और सबके चेहरे मातमी है.....”
“बेटा, जिसे चोट लगती, उसी का दिल जानता है....बडी मसक्कत के बाद आदमी ऐसी चीज बना पाता है। पाँच तोले का था.....जब बनवाया था.........तबका भाव छोडो। आज के हिसाब से तीस से ऊपर का होगा।”
“होगा।.......मुझे नींद आ रही है...........बाकी भाभी के आने पर पूछना.........”और पप्पू ने जाते हुये, दरवाजे के बाहर वाक्य पूरा किया। उसकी बेफिक्री पर सभी को हँसी सी आ रही थी। पर करते क्या ? जो उसे सीधा मानें। उसे अपनी सोसायटी में सबसे इन्टेलिजेंट माना जाता है। केवल चिन्ता करने से गया माल वापस नहीं मिलता।
उमाकांत कुछ महिने पहिले ही हवलदार से ए.एस.आई. पदोन्नत हुये थे। पर इस परिवार में रुतबा टी.आई.साहब जैसा था। पप्पू के जाने के बाद उसने अपनी दोनों मूँछांे को मरोड़ कर गुंडी बनाई। और तहकीकात का निर्णय दिल के एक कोने में छिपा लिया। अभी आभा का बयान बाकी है और उसके आने में अभी सात आठ घंटे की देरी है। तीनों बहनों को खासकार सरला को दिलासा देते हुये कहा- “वक्त अभी धीरज कायम रखने का है......ज्यादा चिंता से कुछ का कुछ हो गया तो नई मुसीबत खडी हो जायेगी....। फिर पुलिस कार्यवाही तो चल ही रही होगी.....। भाई साहब, आप भी..........भाभी, भैया की हालत देखकर बात किया करो।”
संभवतः सरला को पश्चाताप् हो रहा था। कैलाशनाथ पूर्ववत् आँखें मूंद लेते थे। काफी रात बीते डोंगरगढ़ के दर्शनार्थी आये तो पूरे घर में हलचल मच गई। सभीे पुनः अपने अपने ठिकानों से, उसी स्थान पर इकट्ठे हो गये। सभी के चेहरों पर उत्सुकता थी और विषाद भरी वास्तविकता भी ओढ़ी हुई थी। समारोह में सम्मिलित व्यक्ति आयोजकों के हाव भाव के अनुसार अपने को परिवर्तित कर लेता है।
घर की नव विवाहिता बहू आभा आ गयी थी। पर यह क्या ? आने वाले सभी की प्रसन्न मुद्रा, आभा के मुख पर भी कोई विषाद के लक्षण नहीं ?...वही कमल सा खिला चेहरा......वही शालीन मुस्कान....पप्पू की तरह, क्या इसे भी इतनी कीमती चीज जाने का रंज नहीं ? तीनों बहिनों के दिलों में उसकी मुस्कान काँटे सी चुभी। निर्लज्ज....उनकी शंका भरी दृष्टि आभा ताड़ गई। फिर भी सबका अभिवादन कर, अपनी सास के पास बैठ गई।
सरला को कृत्रिम मुस्कान लाना पडी। बोली “गला देखूँ बेटी, कितनी खरोंच है”। आभा ने संकोच से सिर झुका लिया। सबके सामने सिर का पल्लू हटाना खासकर नई बहू का, अमर्यादित भाव समझा जाता है। खरोंच गले के पृष्ठ भाग में थी। अतः सास की मंशा पूरी न कर सकी। उसने छोटी मोसी से पूँछा “मोसीजी, क्या बात हुई ? सब कुशल तो है”
“कैसी कुशल बहू ? जिसकी हजारों की चीज चली जाये....”
“किसकी गई ?”
“तुझे नहीं मालूम ?......अरी तेरा सोने का हार।”
“मेरा......? वह तो अटैची में है....जो गया वह तो नकली था।”
“क्या .....????”
एक साथ सबके मुख से निकल पड़ा। चेहरे पर सभी के आश्चर्य बोध उभर आया। कैलाशनाथ और सरला आनंद से पुलकित हो उठे। अचेतन से कैलाशनाथ के पूरे शरीर में एक नवस्फूर्ति आ गई। सरला ने बिना विलम्ब किये, आभा को छाती से लगा लिया। सबकी आँखों मे प्रेम के आँसू छलछला आये। गिरजा ने शान के भाव चेहरे पर लाकर कहा- “मेरा दिल कह रहा था। जबलपुर की लड़की को कोई ठग नहीं सकता।“ इस झूठी सफाई से सभी ठहाका मार हँस पडे़। आभा की समझ में आ गया कि यह पप्पू भैया का रचा नाटक है।
.......उसे अयोग्य समझने वालों को गहरा सबक है।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’