सफर के साथी
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
जबलपुर से लखनऊ की ओर छूटने वाली चित्रकूट एक्सप्रेस में अभी, दस मिनट का विलम्ब था। यात्री जल्दी अपने ठिकानों पर पहुँचना चाहते थे अतः बेतरतीब भीड़-भाड़ से धक्का मुक्की, एक दूसरे से टकराना आदि जैसे व्यवहार क्षम्य थे। अन्य मौका होता, तो यह अभद्रता बात का बतंगड़ बना सकती थी। पर इस समय ‘सॉरी’... ‘क्षमा कीजिये’... जैसे सम्बोधन से सभी छुटकारा पाने का प्रयास कर रहे थे। पता नहीं, प्रभावित व्यक्ति क्षमा करता था, कि नहीं। सभी जानते हैं, कि भीड़ -भाड़ अपनों की शुभ सुखद यात्रा के संदर्भ में स्टेशन आकर और फिर वापस लौट जाने वालों के कारण बढ़ जाती है। सभी की आकृति विछोह-प्रसन्नता मिश्रित भावों से आछन्न रहती है अतः बेवजह का टंटा मोल लेना कोई नहीं चाहता।
मेरी आदत है, अपने पड़ोसी के कुशलक्षेम की जानकारी रखना। यात्रा के समय तो और भी सतर्कता से। सो मैं अपने पड़ोसियों से रफ जानकारी ले चुका था। नीचे की बर्थ पर मैं, और अवकाश प्राप्त व्याख्याता, ऊपर की बर्थ में बंगाली पति-पत्नी दो साल के शिशु के साथ, सामने वाली नीचे की बर्थ पर बंगाली सज्जन की माँ, उसके ऊपर बाईस तेइस वर्ष का युवक इंजीनियरिंग कालेज का अन्तिम वर्ष का छात्र, उसके ऊपर किसी कपड़ा कम्पनी का सेल्स प्रतिनिधि। साइड वाली सीट पर कुर्ता पायजामा पहिने सभ्रांत सा दिखने वाला लगभग पैंतालिस वर्षीय व्यक्ति। और उसके साथ, हर तरह के रूप लावण्य की धनी उन्नीस-बीस साल की बाला। साथ वाला व्यक्ति मामा था, और वह भान्जी। गाड़ी के अंतिम पड़ाव तक उनकी यात्रा थी। मेरी कानपुर यात्रा से भी आगे लखनऊ। यह स्थिति भी बिल्कुल साफ हो गयी थी। सभी पड़ोसी, इज्जतदार शांति प्रिय हैं। पर उस युवक पर पूरा - पूरा भरोसा नहीं किया जा सकता। क्योंकि उसकी यौवनावस्था थी। यह काल मानव जीवन का अत्यंन्त सुखद मोहक-मस्त बसंत माना जाता है। निरंकुश...। शक्तिशाली पौरुष युक्त। पर इस भरोसा न भरोसा से मुझे क्या ? मेरा क्या ले लेगा ?
गाड़ी ने सीटी दी। चल दी। प्लेट फार्म पर वापस जाने वाले हाथ हिला - हिला जैसे प्रस्थित गाड़ी को बिदा दे रहे थे और गाड़ी में बैठे यात्री जैसे प्लेट फार्म पर खड़े अनगिनत हर वर्ग के आत्मीयजनों को। मेरा वहाँ कोई न था, क्योंकि मैंने अपने बेटे को बाहर के गेट से वापस घर भेज दिया था। अब मुझे अपनी पत्नी, लड़का-बहू, नाती, नातिन की याद आ रही थी। काश वे सब भी अन्य की भाँति मुझे पहुँचाने आते। किन्तु मन दुखी करने का क्या फायदा ? स्वतः ही तो बलात् उत्पन्न होने वाले इन मार्मिक क्षणों की मुक्ति की वजह घर से आने मना किया था।
टिकिट चेकर साहब आये। बारी-बारी से टिकिट चेक कर वापस चले गये। सब ने इत्मीनान की साँस ली।
उस लड़की के साथ वाले व्यक्ति को शायद मैं ही उपयुक्त जँचा अतः मंद मुस्कराहट के साथ मुझसे बोले।
‘आदाब भाई साहब...।’ ‘आदाब श्रीमान जी।...’ उसी अंदाज का उत्तर दिया। ‘कहाँ जाइयेगा... ?’ फिर पूछा उसने।
‘कानपुर। और आप ?’ मैंने कहा और पूछा।
‘गाड़ी के आखिरी ठिकाने तक-लखनऊ। उसका उत्तर था।’ युवक हम लोगों के इस परिचय के आदान - प्रदान के मौके पर, सतर्कता से रुचि ले रहा था। उसने पहिले लड़की के मामा को सरसरी तौर से देखा, फिर मोहक दृष्टि से उस बाला को। मानों उसकी दृष्टि कह रही हो कि साथ वाली नूर का भी तो परिचय लीजिये। पर मेरी तीखी दृष्टि ने मानों युवक का चेतावनी दी। ‘ऐ भाई, जरा सम्हल के’। युवक ने संकोच से दृष्टि झुका ली।
दूर -दूर से बात ठीक न समझ, मैंने उस व्यक्ति को बर्थ पर आने को आमंत्रित किया, जो उसने स्वीकार कर लिया। बैठते हुये प्रसन्नता से वह बोला -‘लम्बी दूरी के सफर में, आप जैसे अज़ीज इंसान मिल जाये तो सोने पे सुहागा है।” कह, उसने ऊपर की ओर देखा। मानों कह रहा हो अल्ला का शुक्र है। ‘कुछ जानकारी तो मैं आने के साथ ले चुका था किन्तु औपचारिक अब ली थी। नाम था उसका अफजल। जूता - चप्पल का थोक - खुदरा व्यापार था। बड़ा परिवार था। जिस मुहल्ले वह रहता, वही मेरे मित्र डा. कुरेशी का दवाखाना था। अतः बातचीत में भाईचारे की भावना तुरंत स्थापित हो गयी। हमारे दिलों में मीठे - कड़वे दोनों रस भरे होते हैं। यह हमारे बस की बात है, कि हम किसे उड़ेले। मीठा, सौजन्यता का या कड़वा नफरत का।
हम दोनों की बातचीत में झिझक का पर्दा हट गया था। जैसे एक दूसरे को बहुत पहिले से जानते हों। इस कारण उस बाला की भी मोहक आँखों में अपनेपन की भावना उभर आयी थी। वह मुस्कराकर कभी हम लोगों को देखती, कभी बंगाली युवती की तरफ, कभी खिड़की के बाहर प्रकृति की हरियाली, ऊँचे पेड़ और पहाडि़यों को ..... इसीलिए तो सामने वाली बीच की सीट में बैठे युवक की नजरें, सबकी नजरें बचा, काले सलवार सूट वाली बाला को चोर की तरह देख ही लेती थीं। पर हम लोगों को देखने पर लज्जा के भाव भी उभरते थे। कहते हैं, व्यक्ति के व्यक्तित्व से खानदान के संस्कारों का अच्छे बुरे आचरण को कुछ मायने में भाँप सकते हैं। सो व्याख्याता के नाते मैं अपने को इसका अधिकारी मानता हूँ अतः मेरा निष्कर्ष यह बना कि युवक भले ही तरुणाई के ज्वर से ग्रसित हो पर वह सामाजिक दायरे के भीतर ही है। यह बात उसकी लज्जा के भाव से स्पष्ट है। हम दोनों की बात चली। मैंने उसके व्यापार की जानकारी ली उसने मेरे शिक्षा जगत की। कम्पार्टमेन्ट के अंदर की हलचल से मालूम हुआ की कटनी आ रही है। बंगाली दम्पति माँ सहित खाद्य पदार्थ का सेवन कर रहे थे। कटनी आया, तो वह युवक और वह सेल्स प्रतिनिधि बाहर चले गये। जाने के पूर्व, हमें और बाला को स्नेह से देखता गया। अफजल अपनी सीट पर जा चुका था।
मैंने अपना टिफिन निकाला। मेरी पत्नी बड़ी समझदार है। मेरी यात्रा के समय भले ही अकेले की यात्रा हो, खाने का सामान तीन चार व्यक्तियों का हमेशा रखती है। रास्ते में काम आये तो ठीक अन्यथा जहाँ जा रहा हँू, उस घर में काम आये। मैं इस बार अफजल को अपनी बर्थ पर न बुला, टिफिन लेकर उसकी बर्थ पर पहुँच गया। बड़ी प्रसन्नता से मामा - भान्जी ने मेरा इस्तकबाल किया। वे भी अपना डिब्बा निकालने लगे तो मैंने मना किया। “पहिले यह, बाद में वह।”
“बेटी, तुमने अपना नाम नहीं बताया ? मैंने उस बाला से पूछा। चेहरे पर उसके शर्म जैसे भाव उभरे। धीरे से बोली “रवीना।”
शर्म का भाव स्पष्ट हो गया। मैं खुलकर हँसा।
“रवीना। बड़ा प्यारा नाम। कोई फिल्म स्टार भी तो इसी नाम की है न ?
“जी अँकल।” वह बोली - ‘रवीना टंडन। पर कहाँ वह कहाँ मैं ?’
“ऊँ.. हूँ ...।” मैंने उसको अपने को छोटी सिद्ध करने वाली बात को काटते हुए कहा- “बिल्कुल गलत। रवीना बिल्कुल गलत। तुम्हारे आगे वह कुछ नहीं।” मैंने भरपूर उसकी श्रेष्ठता सिद्ध की। गवाही में अफजल भाई की सहमति आँखों द्वारा ली। जब उसने सहमति दी। ‘वजा फरमा रहे हैं-पंडित जी,’ तो उसने अफजल की छाती पर, रूठे बालक की अदा से अपनी नाजुक हथेली से दो तीन मुक्के मारे। कितना ममतामयी प्रहार था वह। काश, वह युवक भी इस अनूठी भाव भंगिमा को देखा पाता। उसके इस अंदाज में जैसे चेलेंज था, कि मामा जी, अब आगे कुछ कहा तो ठीक नहीं।
बड़े प्यार से रवीना ने हम दोनों को खाना खिलाया। उसने भी खाया। अपने खाने के डिब्बा से एक - एक कचौड़ी मिर्च का अचार भी दिया। मुझे अपनी बेटी की याद आ गयी। कुछ इसी तरह के स्नेह से तो वह भी मुझे खिलाती है।
बंगाली दम्पति और उनकी माँ लेट गयी थी। ऊपर का प्रतिनिधि, और वह युवक भी कम्पार्टमेंट में अपनी बर्थ पर आ चुके थे। युवक बाहर से सिनेपत्रिका लाया था। उसे रवीना को दिखाते हुये लाया था। मुझे उसकी यह हरकत ठीक नहीं लगी। पर कोई मौखिक अभद्रता भी तो नहीं की थी उसने। अतः कोई क्या कह सकता था ? वह सूटकेस सिराहाने रख, आधा लेटा- आधा बैठा स्थिति में पत्रिका पढ़ने का उपक्रम करने लगा। मैं अभी उन्हीं के बर्थ पर था। सोच रहा था। यह अपनेपन की माया भी कितनी विचित्र है। थोड़ी देर पूर्व वे कौन थे, कहाँ के थे, गर्त्त में छिपा था। पर अब सभी अपने परिवार जैसे हो गये। हम में कृत्रिम अहं की भावना न उदित हो, तो सब तरफ सुख भरा माहौल नजर आयेगा। यह अहं, परम श्रेष्ठता के थोथे विचार ही, मानव मन में सुमधुर सम्बन्ध स्थापित करने में बाधक हैं। जब सबकी धमनियों में एक ही तरह रक्त संचालित है, तब यह भेद की दीवार क्यों खड़ी होती हैं ?
हम लोग घनिष्टता के दायरे में पूरी तरह आ गये थे। अब तक चर्चा औपचारिक तौर पर हो रही थी, अब परिवारिक सतह को स्पर्श करती हुई। चर्चा अफजल ने आरंभ की - “पंडित जी, हमने अपनी प्यारी भांजी की परवरिश बड़ी मसक्कत के साथ की है। जब यह बेचारी साल भर की थी, तब इसकी मां का इन्तकाल हो गया था। उसी समय मेरी बीबी ने एक लड़की जनी थी। इस बात पर मैं भारी चिंतित था कि कुछ समय बाद, मेरे बहनोई दूसरा निकाह कर लेंगे तब इसकी क्या गत होगी। दूसरी माँ, मेरी बहिन जैसा क्या इसे प्यार दे सकेगी कि नहीं ? यदि न दे पायी तो इस अभागिन पर मुसीबतों का पहाड़ टूट पडे़गा, और इसका भविष्य नाश हो जायेगा। इससे मेरी बहिन की रूह किलपेगी। मैंने अपने दिल की बात बीबी से की तो उसने इसे लाने पर जोर दिया और वचन दिया, कि अपनी बेटी से ज्यादा ताजिन्दगी इसे दुलार देगी। वाह...री हमारी बेगम। उसने अपनी वह कसम आज तक निभायी। एक फरिश्ते की शक्ल में हर तरह से इस गुडि़या की तीमारदारी की। उस परवरदिगार ने बीबी के रूप में, या इस अभागिन के भाग्य से जन्नत की हूर ही जैसे मेरे घर में भेज दी थी। या... खुदा, कितना अहसान है उसका मुझ पर।”
मैंने देखा अफजल की आँखें गीली हो गयीं थीं और साथ में रवीना की भी। दोनों ने साफ की रूमाल से। मैंने संजीदगी दूर करने की दृष्टि से आसपास देखा। सभी लेट गये थे। युवक सिने पत्रिका पढ़ने में व्यस्त था - मैं अपनत्व से अफजल से बोला -
“फिर भाई अफजल ?” सचमुच आप किस्मत के धनी हैं....वह फिर बोला -
“इसके वालिद लखनऊ में रहते हैं। उनका अठ्ठारह साल बाद खत आया इसे देखने की तमन्ना का। इसमें भी मंशा देखी सो सोचा, चलो तफरी हो जायेगी। धंधा से भी कुछ दिन छुटकारा मिल जायेगा। धंधे में ऐसा चक्कर चलता है पंडित जी, कि आदमी सीधा कोल्हू का बैल बन जाता है। उसने जो एक्टिंग वाक्य समाप्त करते हुये की, मुझे उस पर हँसी आ गयी। मेरा साथ रवीना ने भी दिया।
“अब आराम किया जाये” वहाँ से मैं अपने बर्थ पर आ गया। चादर तो पहले से बिछा रखी थी, लेट गया। अफजल भी ऊपर वाली बर्थ पर, रवीना भी नीचे वाली बर्थ पर। डिब्बे के अन्य यात्री भी लगभग सो गये थे या सोने वाले थे। मानिकपुर आने वाला था।
मुझे अब, इस बिन माँ की बालिका पर तरस आ रहा था। यदि अफजल और उसकी बीबी का शैशवकाल में सहारा न मिला होता तो यह फूल सी कोमल कली मुर्झा जाती। बहुत देर बाद सोया। जब कम्पार्टमेंट में चहल-पहल हुई तो देखा, बांदा था। बंगाली परिवार वहाँ उतरा। मैंने, देखा युवक भी सो चुका था। रवीना भी, अफजल भी। घड़ी की ओर देखा, प्रातः पाँच बजे थे।
मुझे फिर काफी देर नींद नहीं आई। मानिकपुर के बाद मुझे जो झपकी लग गई थी, उसका अफसोस हो रहा था। इसलिये कि, यह तो जान लिया था, युवक की नजरों में कोई ख्वाहिश है। अब वह अच्छी हो चाहे बुरी। पर उस युवक के प्रति रवीना की नजरों में कैसे भाव हैं, नहीं पढ़ पाया। तरुणाई की परिधि में वह भी है। दोनों एक दूसरे से प्रभावित अवश्य हुए होंगे। नींद ने आकर सब नष्ट-भ्रष्ट कर दिया। थोड़े से फासले पर जब युवक-युवती बैठे हों, तब संभव नहीं है कि एक ही ने देखा हो। निश्चित है, रवीना ने भी अनेक बार उसकी ओर देखा होगा। पर अब क्या ? अब तो दोनों सो रहे हैं। काफी देर बाद पुनः, मैं सो गया।
उठिये पंडित जी, कानपुर आने वाला है। अफजल ने मुझे झकझोर कर जगाया। आसपास शेष बचे सभी जाग रहे थे। शायद फ्रेेश भी हो लिये थे। रवीना भी जाग रही थी, वह युवक भी। दोनों तरोताजा जैसे दिखाई दे रहे थे। मैंने उठकर दैनिक नित्य कर्म निबटाये। अफजल ने पीछे छूटे किसी स्टेशन पर मेरे लिये भी चाय ले ली थी, जो थर्मस में रखी थी। आने पर मुझे दी।
मैं सोचने लगा। थोड़ी देर बाद कानपुर आयेगा। हम लोगों द्वारा सफर में स्थापित संबंध पुनः जुदा-जुदा हो जायेंगे। एक दूसरे से बिछड़ जायेंगे। बस दिल के किसी कोने में स्मृति ही शेष बचेगी। वह भी कुछ दिन बाद धुंधली पड़ जायेगी। अक्सर हर यात्रा में ऐसा ही होता आया है। इसमें भी ऐसा ही होगा। हमारे मस्तिष्क में दैनिक घटित घटनाओं को याद रखने की क्षमता ज्यादा नहीं होती, वह तो कुछ चुनी हुई घटनायें ही संजोकर याद रख सकता है।
कानपुर आ गया। बिदाई का क्षण आ गया। मैंने समग्र आत्मीयता से कहा - “अच्छा अफजल भाई .... अच्छा बेटी रवीना ..... जबलपुर लौटने पर घर आना। जरूर आना बेटी।” विछोह के समय अधिक कुछ कह भी तो नहीं सकते। हम तीनों की आँखों में प्रेमाश्रु उमड़ आये। युवक की क्या स्थिति थी , मैं देख ही न सका।
मैं कानपुर एक सप्ताह रुका। वहाँ मेरे नजदीकी रिश्तेदार बीमार थे। वापस जबलपुर आया तो अपने काम में व्यस्त हो गया। जो पीछे छूट गया, उसे देखने की हमारी आदत नहीं। इस तरह दो माह बीत गये। एक दिन शाम को भ्रमण कर जब घर वापस आया, तब मेरे पुत्र ने एक लिफाफा मुझे थमा दिया। बोला एक सज्जन, शायद अफजल भाई आये थे। काफी देर बैठे रहे आपके इंतजार में। यह निमंत्रण पत्र दे गये हैं। बार - बार आने के लिये कह गये हैं।
लिफाफा रवीना की शादी का आमंत्रण था।
शादी के दिन मैं अपनी पत्नी के साथ वहाँ पहँुचा तो एकदम चकित हो गया। आश्चर्य और असीम आनंद से मैं बेसुध सा हो गया। रवीना का दूल्हा तो ट्रेन वाला वही युवक है।
‘थोड़ी देर बाद अफजल ने आकर कैफियत दी - “मेरे साथ छल हुआ है पंडित जी। ये साहबजादे यहाँ इंजीनियरिंग कालेज में बी.ई. फाइनल में पढ़ते हैं। इनके वालिद और रवीना के वालिद में, लखनऊ में आपस में गुफ्तगू हुई। देखने - सुनने डेट फिक्स हुई और हम लोगों को रवीना को देखने के बहाने बुलवाया और साहबजादे को माँ की बीमारी के बहाने। जाने पर राज खुला।”
“बड़ा खुबसूरत छल है, अफजल भाई। किसी नसीब वाले को मिलता है। मैंने कहा। मैंने रवीना के शौहर रहमान को हृदय से लगा दुआएँ दी और मेरी पत्नी ने रवीना को। ट्रेन की यात्रा के धुंधले चित्र सामने आ गये, जो अब बड़े प्रिय और अमिट लगे।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’