समर्पण
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
रसोई घर में बैठी देविका के हाथ आटा गूंथते -गंूथते थक गए थे। उसने एक गहरी सांस ली , फिर जुट गयी अपने काम में। कई सालों का अरसा यही करते-करते तो बीत गया था।
सामने चूल्हा पर डेगची में पक रही -उबलती दाल। चूल्हे की एक लकड़ी जल रही थी, दूसरी बुझ गई थी। बुझी लकड़ी से निकलता धुआँ, वर्षों की काली कलूटी दीवारों से टकराकर बिखर रहा था। उसने बुझी लकड़ी ,फिर जला दी। देविका ने अपना सिर झुकाया और घुटनों में लटक रही, साड़ी के पल्लू से माथे पे आयी पसीने की बूदों को पोंछा और पीछे की दीवाल का सहारा लेकर अपनी पीठ टिका दी। आँखें मूंद कर बुदबुदा उठी -
“उफ् क्या जमाना आया है, इस उम्र में भी यह काम ... अब मुझसे नहीं होता। अनु से कितनी बार कहा किन्तु सुनता ही नहीं - कहता है, माँ बहू के आ जाने से कौन सा सुख मिलेगा तुझे ... पगला कहीं का। बहू आ जाती तो अपना यह घर द्वार सम्हालती। कम से कम मुझे भी एक सहारा मिलता। जीवन के कुछ दिनों को तो आराम से गुजार लेती। आज तो उसे शादी का फैसला करना ही होगा। ....”
माँ को बुदबुदाते देख कर ऊषा बोली- “क्या बात है माँ ? क्या सोच रही हो ? तबियत तो ठीक है न माँ ?”
अपनी स्वेटर की सिलाईयों को एक किनारे रख कर ऊषा बोली -” उठो माँ मैं खाना पकाती हॅूं । तुम जाकर थोड़ा आराम कर लो “
देविका की आँख खुल चुकीं थीं। बेटी की बात सुन उसकी मातृत्व भावना जाग उठी। कर्तव्य क्रियाशील हो उठा। बोली- “चल बड़ी आई है -काम वाली। माँ के रहते तू काम करेगी ? ... जब तेरे हाथ पीले कर दूंगी तो अपनी ससुराल में जाकर काम करती रहना ...जा बाहर से अनु को खाना के लिये भेज दे... और सुन...पटा बिलना देती जाना।”
और तभी डेगची में चढ़ी दाल में उबाल आया - जिससे चूल्हे की जलती आग शांत होने लगी।
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देविका के घर-आँगन में शहनाई बज चुकी थी। घर में बहू के आने से खुशियाँ भी आईं पर मानों बहुत ही जल्दी थक कर एक कोने में दुबक गईं थीं।
शादी अनुपम के जीवन के लिए एक नया मोड़ था। पर उसकी एक कल्पना थी। ऐसी कल्पना जहाँ उसके जीवन में उसके माता -पिता होंगे, उसकी बहिन होगी और सबका लाड़ प्यार पाती सुन्दर सुशील नम्र एवं मधुर स्नेह बिखेरती एक अनूठी प्रियतमा। जब वह आफिस से थका हारा काम करके लौटे तो मुस्कान बिखेर कर स्वागत करती हुयी पत्नी मिले। अनु तो केवल शांति ओर प्रेम का उपासक था।
अर्पणा का पदार्पण उसके जीवन में पत्नी के रूप में हो चुका था और समय का चक्र चलता हुआ अपने तीन वर्ष व्यतीत कर चुका था। किन्तु परिवार के घर आँगन में स्वर- संगीत का तालमेल मेल नहीं खा रहा था। सास बहू और ननद के त्रिकोण का हल नहीं हो पा रहा था।
एक दिन अस्पताल के एक कक्ष में - पलंग पर लेटी अर्द्धमूर्छित अर्पणा ने अपनी बोझिल पलकों को बड़ी व्याकुलता से उठाकर देखा - नर्स स्टैंड में टंगी ग्लूकोज की खाली बोतल को बदल रही थी। पास ही अपनी एक वर्षीय बालिका को लिए खड़ा था अनुपम। चारों ओर नजर घुमाकर देखा और हमेशा की तरह उदास बोझिल पलकें बंद कर लीं। अनुपम पास रखी तिपायी पर बैठ गया और अर्पणा के सिर पर हाथ फेरने लगा। लुप्त चेतना ने होश सम्हाला। चेहरे पर मुस्कान लाकर बोला -”अब कैसी तबियत है ?”
अर्पणा ने आँखें खोलीं पर बोली नहीं। मौन...
“अब तुम जल्दी ठीक हो जाओगी “ अनुपम ने बात आगे बढ़ायी- “डाक्टर साहब आये थे कह रहे थे, अब तुम ठीक हो। परसों छुट्टी मिल जाएगी। छुट्टी मिलते ही सीधे घर। क्यों , ठीक है ? “
अर्पणा फिर भी कुछ बोली नहीं।
“और हाँ ... सुनो... माँ और ऊषा बहुत जिद् कर रहीं थीं,आने की। वार्ड नम्बर भी पूंछ रहीं थीं - पर मैंने मना कर दिया। व्यर्थ में परेशानी होती उन्हें। क्यों ठीक किया न।”
इघर अर्पणा की तेज निगाहों ने जैसे सम्पूर्ण सच्चाई्र को भांप लिया। अपने झूठ को बेनकाब होते देख अनुपम और रुकने का साहस न कर सका और बच्ची को साथ ले कमरे के बाहर चला गया। वह शादी के पहले और बाद की परिस्थितियों का अवलोकन करने लगा। सास बहू के दो विपरीत दृश्य उसके सामने थे। वह विरोधाभास का कारण भी जानता था।
वह मानता था कि जीवन एक रंगमंच है, पुरुषों के साथ ही नारी को भी विभिन्न पात्रों का अभिनय एक साथ करना पड़ता है जैसे माँ-बेटी, सास-बहू, पत्नी-ननद आदि। माँ बेटी और सास बहू दोनों में समानता होते हुए भी असमानता दिखलाई पड़ती है। वह दोनों की मनोभावों से भली भांति से परिचित था। सेतु बनाने के लिये लगा रहता था, पर हमेशा असफल होता जा रहा था।
माँ बेटी के बीच में स्नेह, प्रेम, त्याग, क्षमा ये सब सहजता से अपना स्थान बना लेते हैं क्योंकि माँ का बेटी से जन्म से लेकर युवावस्था तक सानिध्य रहता है। स्तन का दूध और आँचल की छाया - एक दूसरे के प्रति समर्पित भावना का निर्माण स्वाभाविक हो जाता है।
वहीं दूसरी ओर नारी जगत में माँ के बाद सास का पद बड़ा होता है। सास माँ का ही प्रतिरूप है। वयस्क बहू यदि प्रथम दिन से सहज भाव में सास को माँ का दर्जा दे देती है और दूसरी ओर सास बहू को अपनी बेटी का दर्जा दे देती है तो ठीक किन्तु ऐसा कम ही होता है। दोनों एक दूसरे को स्नेह, त्याग, क्षमा जैसे मापदंडों के आधार पर अपनी तार्किक बुद्धि से तौल कर परखतीं रहतीं हैं। अधिकार और कर्तव्य के आपसी सामन्जस्य में ही सुखी जीवन की आधार शक्ति छिपी रहती है।
यह मापदंड ही जीवन की कुंजी है, सफलता -असफलता इसी में निहित है। विरोधाभास की दशा में प्रायः कर्तव्य गौण हो जाता है। अधिकारों की बौछारों से प्रेम शांति विलोपित हो जाती है। तब कटुता उपेक्षा का जन्म होता है और चलने लगता है, अंतहीन विरोधाभास।
प्रेम त्याग की गंगामयी भावना हर दिल में रहती है , बस उसे प्रवाहित होना चाहिए। उस गंगा में जिसने अपनी पतित विचार धाराओं को आत्म सात करने की शक्ति पैदा कर ली - वही सौभाग्यशाली हो गया। जैसे कितनी भी पतित धारा क्यों न हो, गंगा में समाहित होकर भी वह पावन बन जाती है।
अनुपम ने अपने छोटे से जीवन क्षेत्र में शांति के लिए तरह तरह के ज्ञान अर्जित किये थे। पर वे सब निर्मूल सिद्ध हो रहे थे। सबका केन्द्र बिन्दु वह था - केवल वह। चूंकि वह दोनों पाटों के बीच में बुरी तरह से पिस रहा था।
कहाँ है, माँ के सुख -स्वप्नों की साध और वह प्यार ? और कहाँ है, बहू का त्यागमयी समर्पित आदर्श ? कहाँ है, भाभी ननद के बीच का सद्भाव ?
अच्छा -बुरा जीवन चक्र चल रहा था।
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ऊषा की शादी की चिन्ता में माँ -बाप चिन्तित थे। दहेज की माँग के आगे उन्हें बेटी की मांग का सिन्दूर बड़ा दुर्लभ नजर आ रहा था। अनुपम भी परेशान था। उसके भी अपने आर्थिक सीमित संसाधन थे। वह अपनी बहिन की अच्छी शादी के लिए बहुत कुछ करने को तैयार था- किन्तु वह... अर्पणा की उपेक्षा नहीं करना चाहता था। उसे भी इस मांगलिक कार्य में बराबर का सहभागी बनाना चाहता था।
माँ बाप की आशाएँ अनुपम पर केन्द्रित थीं। बेटे के सुखमय भविष्य के लिये वे अपना सब कुछ लुटा चुके थे। सीमित साधन की कमी अनुपम को कभी अनुभव नहीं होने दी इसीलिए तो परिवार के प्रति अनुपम की समर्पित भावना थी। पर क्या समर्पित भावना से बहिन की मांग का सिन्दूर भरा जा सकता था ?
नहीं ... हर्गिज नहीं ... तब फिर ....?
जीवन संगिनी अर्पणा !
इधर अर्पणा अपने इस घर में उपेक्षित एवं तिरस्कृत जीवन का लेखा जोखा लगा रही थी। हृदय में अन्तद्र्वन्द्ध चल रहा था। प्रश्न उठ रहे थे - मैं क्यों मदद करूँ उनकी ? क्या पाया है मैंने , इस घर में आकर ? प्यार... नहीं... मातृत्व ... नहीं ...अपनत्व ...नहीं तो फिर क्या मिला है ? ... झिड़कियाँ ! निरादर !! और अधिकारों की पीड़ादायक बौछार !!! तब मैं क्यों इनके प्रति समर्पित होऊँ ?
जिसकी मांग के सिन्दूर की खातिर ये सब चिंतित हैं उसका कैसा व्यवहार रहा मेरे प्रति ?
तभी अर्पणा की अन्तरात्मा के एक कोने से आवाज उभरी - “ सुन अर्पणा ! ऊषा अभी बालिका है। तू भाभी है उसकी। और भाभी का दर्जा माँ के तुल्य होता है। दया और क्षमा .... हठ मत कर ... अपने कर्तव्यों के प्रति सजग हो ...,दया और क्षमा नारी का आभूषण है। तू दया कर और क्षमा कर दे ...। “
“यह असम्भव है ... मैं किसी की कोई भी बात मानने को मजबूर नहीं। जो मेरे पास है , वह सब मेरा है। उनका कोई अधिकार नहीं ...बस अधिकार है तो मेरा हाँ... हाँ...मेरा अधिकार ! “ -उसके दूसरे कोने से आवाज उभरी।
अर्पणा की दम तोड़ती भावना काँप उठी। बोली - “ परन्तु तुम्हारा कर्तव्य ...?”
“कर्तव्य ! “अर्पणा चीख पड़ी - “नहीं ...नहीं... मेरा कोई कर्तव्य नहीं इस घर के प्रति ...”
तब भावना बेवस हो गयी। बोली - “अर्पणा, तुम वही ज्वाला तेज कर रही हो। तुम्हारा भी वही प्रतिकार है, कर्तव्य विहीन, प्रेम विहीन,अधिकारों की पीड़ादायक बोछारों का ? यह क्या तुम्हें जीवन में सुख शांति दे सकेगी ? अच्छी तरह सोच लो ... यह तुम्हारी विजय क्षणिक हो सकती है, स्थायी नहीं ... यह छल है... धोखा है.. अर्पणा... मुझे बचा लो... मैं तुम्हारी सच्ची सखी भावना हॅूं ... सुनो अगर मैं मर गयी, तब तुम जीवन भर पछताओगी। ऐसा सुनहरा मौका फिर नहीं मिलेगा।
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बैठक कक्ष में देविका, अपने पति पुत्र के साथ बैठी दहेज की मांग का लेखा-जोखा कर रही थी। बहुत कोशिश के बाद भी नाव डगमगाती नजर आ रही थी। सब चिंतित, उदास थे। ऊषा दरवाजे के ओट में किसी अपराधिन जैसी खड़ी थी, आखिर सभी लोग उसी की शादी के लिये प्रयासरत थे। परेशान थे। चिंता में डूबे थे।
तभी अर्पणा ने देविका के हाथ में अपनी शादी के समस्त गहनों का डिब्बा थमा दिया। बोली “ माँ, ये आभूषण -प्रेम, ममता दया जैसी भावनाओं के सामने तुच्छ हैं। इन्हें ग्रहण कीजिए और ऊषा की शादी धूमधाम से कीजिए। आखिर मैं उसकी बड़ी भाभी हॅूं और बड़ी भाभी माँ के समान होती है। वह मेरी बेटी जैसी ही तो है ... उसे अच्छा घर मिले और सुख शांति मिले यही मेरी कामना है।” सभी की निगाहें अर्पणा के चेहरे पर लगीं थीं। आज वास्तव में अर्पणा के मुख पर कर्तव्य बोध मिश्रित सुख शांति झलक रही थी। उसके त्याग और समर्पण ने उसके चेहरे में एक नई आभा को बिखेर दिया था। सबकी आँखों में खुशी के आँसू छलक पड़े थे। मानों वे उसका आभार मान रहे हों। उस दिन अर्पणा की उदात् भावना ने उस पर विजय प्राप्त कर ली थी।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित नवभारत 1996)