संघर्ष
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
मानव दो श्रेणियों मे विभक्त है शोषक और शोषित । एक ओर जीवन उल्लास, वैभव-विलास, सुरम्य, प्रासाद एवं स्वर्गिक रंगरलियों से परिपूर्ण है, दूसरी ओर जीवन नैराश्य, करुणा, भर्त्सना और कंगाली की प्रगाढ़ तिमिर संत्रास में डूबा। कितनी विषमता है मानव के दो पहलूओं में, सुधा और हलाहल सा विशाल अन्तर है। गरीबों का खून चूसकर उन्हें कंकाल बना देने वाले नृशंस अधम मानव की मानवता छपपटा उठती है और वरण करती है, निर्धन के उस भावुक और सरल हृदय को जिसमें क्षमा और करुणा का अनवरत स्त्रोत प्रवाहित होता रहता है। किन्तु मानवता की रक्षा का मूल्य ?
राधाचरण मुनीम है, शांति प्रकृति के भोले भाले व्यक्ति। उनके व्यक्तित्व में जो सत्यता, कर्तव्य परायणता अन्तर्निहित है, वह कदाचित ही किन्हीं व्यक्तियों मे पायी जाती है। उनका गृह संसार चार प्राणियों तक सीमित है। वहाँ वृद्धा माँं, पत्नी और पाँच वर्षीय अबोध बालिका। सबके पालन पोषण का भारी उत्तरदायित्व राधाचरण पर ही है ।
सेठ धरमचन्द लखपति हैं। राधाचरण उन्हीं सेठजी के नौकर हैं। माह के अन्त में पचास रुपये बड़े कसाले से तीस दिनों की ‘जी हूजूरी’ के बाद मिलते हैं। राधाचरण की मुखाकृति पर उस समय एक अनूठा क्षणिक स्वाभिमान झलक उठता है। मानो कहीं की अटूट सम्पत्ति उन्हें मिल गयी हो। किन्तु जब घर आते हैं, तो निर्दय कंगाली अपना भयावह मुँह फाड़े खड़ी दिखाई देती है। तब उनका क्षणिक स्वाभिमान मानो पहाड़ के नीचे दब जाता है। उनकी मूक आत्मा सिहर उठती है। आशाएँ चूर चूर होकर करुणा में परिणित हो जाती है और वेदना फूट पड़ती है। राधाचरण का हृदय अबोध बालकों की तरह से रो उठता है। वे सोचते हैं, मैंने ईश्वर का कौन सा अपराध किया है। जो इतना असह्य और भयानकं दंड मुझे दे रहे हैं।
राधाचरण ने अपने शुष्क वेदना मिश्रित कंगाली के जीवन में आनंद का लेश मात्र भी अंश न पाया था। इस विकराल असामान्य परिताप से उनकी आत्मा दग्ध हो रही थी। फिर भी वे मूक थे, स्तब्ध और शांत। अपने मानवीय आदर्शों का हनन करना उनके लिए असह्य और कठिन था।
राधारचण अपनी इस काली रात की गोद में से सोकर उठे ही थे कि उनकी बालिका श्यामा रोती हुई सामने आ खड़ी हुई। उसे माँं ने मारा था। राधाचरण ने बालिका को पुचकार कर गोद में बैठाया। मीठी आवाज में पूछा-
“क्यों रोती है बिटिया, माँ ने मारा है ?”
पिता की सहानुभूति पाकर बालिका का क्रन्दन और तीव्र हो उठा। वह फूट फूट कर रोने लगी। राधाचरण ने सांत्वना देते हुए कहा- ‘बता बिटिया, मैं मारूँगा उसे और आजी से पिटाऊँगा। बोलो, क्यों रोयीं थी तुम’। कुछ क्षण बाद रोना शांत हुआ। वह बोली- ‘फिराक लाने को कहती हूँ .......तभी माँं मारने लगती हैं........तुम्हीं बताओ दादा, आजकल करते-करते कितने दिन हो गये हैं। दादा यह कई जगह से फट गयी है और थिगड़े लग गये हैं......क्या तुम्हें अच्छा लगता है, दादा...
बालिका के सरल हृदय से निकले हुए वे मार्मिक शब्द..........और अबोध आँखों से टप टप गिरते हुए वे आँसू !....राधाचरण ने चाहा कि अपने हृदय को पाषाण का बना लूँ.....किन्तु उस अबोध बालिका की निष्कपट करुणा ने बाप की ममता को पानी-पानी कर दिया। उनके नेत्र स्नेहकण से आद्र हो गये। वे भरी आवाज मे बोले-‘मैं ऐसा नहीं चाहता बिटिया, क्या सचमुच ही जान बूझ कर तेरे लिए फिराक नहीं लाता ? क्या सचमुच ही तुझे विश्वास है, तेरे दादा तुझे नहीं चाहते..........बिटिया मैं तो चाहता हूँ .......तू अच्छा खा, अच्छा पहिन, पर क्या करूँ, परमात्मा को मंजूर नहीं.....’
राधाचरण का गला रुंध आया था। बालिका को उनके शब्दों से तनिक भी सहानुभूति न थी। वह बोली- ‘ सभी सहेलियाँ चिढ़ाती हैं मुझे। पुष्पा कहती है, हमारे पास मोटर कार है। नौकर हैं, दर्जनों कपड़े हैं, दर्जनों चप्पल हैं, बस तू एक मैली, सड़ी-गली फिराक पहिनकर आ जाती है। मैं अपने पास न बिठाऊँगी। और वह कहती है......कहती है....क्या तेरा बाप मर गया है। तुमको जो ....
करुणा फूट पड़ी। बालिका जोर से रो उठी......
पर राधाचरण !
संसार की निर्दय विषमता पर उनका हृदय हाहाकर कर उठा .......वे भगवान की भर्त्सना करने लगे।..........भगवान। तू सचमुच ही पाषाण है -निरापाषाण ! तेरे अन्तस में करुणा नहीं ....! कोमलता नहीं, भावुकता नहीं ! तू गरीबों का हाहाकर नहीं सुन सकता ! तू भगवान नहीं ! तू भगवान नहीं ....!!
राधाचरण का विपदाग्रस्त मन उद्वेलित हो उठा था। सभी गरीब भगवान को ही एकमात्र अपना सहाय मानते हैं। किन्तु ऐसे मोंकों पर उनका विद्रोह भगवान के प्रति होता है। जो उनके संतप्त हृदय को शांति पहुँचाता है। अतः राधाचरण के मन का विचलित होना स्वाभाविक था।
बालिका संसार की इस वस्तु स्थिति से अनभिज्ञ थी। संसार की कुटिलता का महत्व उसके समक्ष निर्मूल था, महत्वहीन.......वह सिसकियाँ भरती बैठी रही....! पर राधाचरण ? उनका मन दूर बहुत दूर, विषमताओं के पहलू का प्रतिनिधि बन सामर्थ्यवान अखण्डता से द्वन्द्व करने में संलग्न था....! बालिका तो गहरी नींद में सो गयी थी।
सुबह देर हो गयी....
मुनीमजी आज आने में बड़ी देर लगायी, साढ़े नौ बज गये............अभी -अभी एक सौदा हाथों से निकल गया है। कपड़ों का कांट्रेक्ट था। हजारों पैदा होते....पॉँच हजार............दस हजार..........पचास हजार......राधाचरण के लिए ये नित्य सुनने के शब्द थे। वे नये न थे। किन्तु सेठ जी के शब्दों ने आक्रमकता थी, ‘तुम्हारी वजह से’। उससे राधाचरण क्षण भर के लिए अवाक् रह गये।
‘आज के विलम्ब के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ सेठ जी। बच्ची मचल गयी थी। वरना मैं तो आठ बजे आ जाता हूँ ।
‘पर मेरा नुकसान ?’......
‘नुकसान !’.....काँप उठा राधाचरण का हृदय। दो चार रुपये जब उनके लिए कठिन हैं तब उनका नुकसान?........‘सेठजी, मैं क्षमा माँगने के सिवाय और क्या कर सकता हूँ । मैं अपनी महान् त्रुटि के लिए शर्मिन्दा हूँ .........’-सेठजी आग बबूला होकर चले गये।
राधाचरण को कुछ देर हिसाब किताब करते हुआ ही थी कि सेठ जी फिर आये-‘मुनीम जी। बड़े लड़के की शादी पक्की हो गयी है। पूर्णिमा को लग्नोत्सव निश्चित हुआ है। कार्ड छपकर आ गये हैं। उनको आज ही लिखाना है।’
‘कितने कार्ड होंगे ?’
‘यही...सात आठ सौ।’
‘सात आठ सौ.....?’
‘हाँ, कल प्रातःकाल डाक से निकल जाना चाहिये। समय कम है। आज ही शीघ्रता से लिख डालिये।’ रात के नौ बज गये राधाचरण बैठे थे। उनकी कलम, कार्ड की छाती को काला कर रही थी। न पानी की सुध, न भोजन की-कार्य सम्पूर्णता ही उनका मुख्य लक्ष्य था।
टन.....टन....टन.....दस
राधाचरण ने घड़ी देखी। दस बज गये थे। फिर कार्ड की ओर देखा जो अभी आधे से ज्यादा बाकी थे। भय से बदन काँप उठा.....कुछ सोचकर राधाचरण उठे। एक कैदी की भाँति सेठ जी से बिदा माँंगने गये। सेठजी एक बहुमूल्य पलंग पर लेटे रेडियो का प्रोग्राम बड़ी तन्मयता से सुन रहे थे। देखते ही बोले-
‘लिख डाले मुनीम जी’।
‘जी....हाँ, अभी आधे बाकी हैं।’
‘बाकी है’। गरज पड़े सेठजी..........मुनीम जी, कैसा काम करते हैं, आप ! मैं अब तक हजार कार्ड लिख डालता। आजकल आपको भी पूरा काम न करने का रोग लग गया है। तनख्वाह अच्छी मिलती है न।’............कितना कटु निर्दय व्यंग्य था।’ कदाचित राधाचरण के स्थान पर अन्य कोई होता तो अवश्य ही कुछ कह डालता। पर राधाचरण सिवा गलती स्वीकार ने के अलावा क्या कर सकते थे, कुछ न कह सके। सेठजी ने जो मन में आया कहा। राधाचरण के कानों ने सुना और फिर वे लांछनाओं का भार लेकर बढ़े घर की ओर। तुझे धिक्कार है री, गरीबी !!
इतनी दरिद्रता होते भी राधाचरण चोरी का एक पैसा लेना पाप समझते थे। चोरी करने वालों पर थूकते थे। भीख माँंगने पर राजी हो जाते किन्तु चोरी का पैसा लेना हराम समझते थे। पचास रुपये में दस घर का किराया और चालीस कपड़ा भोजनादि को। चार प्राणियों के लिए कौन ज्यादा है। माह के अन्त में फाँके पड़ते हैं। उधार की नौबत आती, जिसके राधाचरण कट्टर विरोधी थे किंतु समय और परिस्थिति। क्या प्रत्येक गरीब संसार मंे दुख झेलने के लिए ही जन्मता है ? राधाचरण भी सोचते हैं।
दरिद्रता राधाचरण को चूसे डाल रही थी। पैंतीस की अवस्था साठ का अनुमान करा रही थी। सेठजी के लड़के के लग्नोत्सव का विशेष भार राधाचरण के कन्धों पर आ पड़ा था। उसे सुचारु ढंग से सम्पादित किया। खूब धूम धमाके से लग्नोत्सव संपन्न हुआ। बीस हजार का हिसाब आया। और पूरी शादी में पचास हजार....
इतना खर्च ? पर राधाचरण वही कंगाल के कंगाल। हाँ, उनके जीवन में वेदना अवश्य तीव्रता से बढ़ रही थी। यह गरीबों की कितनी प्रिय निधि है। राधाचरण सदा उसे हृदय में छुपाए रहते हैं....शाम को राधाचरण जब घर आये और खा पीकर अपने कमरे में गये, तब उनकी पत्नी कमला आयी। एक टूटी खटिया पर लेटे वे पुराने छप्पर को देख रहे थे। कमला पैरों के पास बैठकर पैर दबाने लगी। राधाचरण उसकी तरफ अपलक देख रहे थे।
‘आखिर कब तक चलेगा ऐसा ?’
विचार भंगिमा भंग हुई। छप्पर से दृष्टि हटकर कमला के शुष्क चेहरे पर घूम गयी। वे पूछने लगे। मानो वाक्य सुनाही न हो।
‘कुछ कहा तुमने ?’
‘हाँ, आखिर कब तक ऐसा चलेगा ?’ कमला ने दुहराया।
“यही सोचता हूँ । मेरी दरिद्रता में सम्मिलित होकर तुम भी उत्पीडि़त हो। कष्ट सह रही हो।..........‘
‘मेरा कष्ट ?’-कमला ने एक हलकी विषादमय हँसी, हँसी। आपके इन सुखमय चरणों में रहते हुए मुझे किस बात का कष्ट है, मेरे तो पूर्ण सुख आप हैं। आप अच्छे रहें, इसी मे मेरी संतुष्टि है। किंतु आपकी हालत दिनों दिन गिरती जा रही है।’..............कहते कहते उसकी वाणी दर्दमयी हो आयी। पत्नी को प्रसन्न करने के लिहाज से राधाचरण हँस पड़े ‘मेरी चिन्ता न करो.........मैं मरूँगा नहीं।’
कमला मानो इन शब्दांे के सुनने की आदी हो गयी थी। कई बार ऐसे शब्द राधाचरण पहिले भी कह चुके थे। कमला गम्भीर वातावरण को नष्ट होते देख खीझ पड़ी- ‘आप से तो बात करना मुश्किल हो जाता है। आप ऐसी बातंे न किया करें मुझसे।’
फिर मधुर शब्दों में बोली- ‘अब तो अपनी सरकार है। अपना राज्य है । सुना है अमीर गरीब की विषमता नष्ट होगी। सब एक से रहंेगे।
‘अपनी सरकार’ घृणा और आक्रोश से उद्वेलित हो उठा राधाचरण का मुख। ‘यही है अपनी सरकार’ ? जनता आज चीख रही है। कपड़ा अनाज को रो रही है। पर ये सरकार के कृपापात्र अपने घरों में ठूँस रहे हैं। यही जनता के प्रति श्रृद्धा है। यही वह प्रण था श्रमिक वर्ग के उत्थान का........संसार बड़ा कुटिल है, कमला। ये सब भव्य प्रसाद और वैभव विलास कैसे छोड़ सकते हैं वे अधीश्वर। इतना बड़ा त्याग.......वे कैसे कर सकते हैं ? कभी नहीं। ऐसी स्थिति में ऐसी सरकार को हम अपनी सरकार कैसे कहेंगे ? इतने लम्बे व्याख्यान को समझने की कमला के पास बुद्धि न थी। न तो उसे विवाद ही प्रिय था। यदि वह ऐसा समझती तो कभी प्रश्न ही न करती।
काल-चक्र घूमता गया। राधाचरण को दिनों दिन अपना जीवन पहाड़ सा लग रहा था। गरीबी और अमीरी की विषमता का जो अंकुरण प्रस्फुटित हुआ उनके जीवन में उत्तरोत्तर बढ़ रहा था। उन्हें पूर्णरूपेण आभास हो चला था कि उनकी यह चिन्ता अवश्य एक दिन उन्हें राख की ढेरी बना डालेगी। कभी वे आगामी अप्रत्यक्ष घटना से सहम कर हृदय पर हाथ रखते। क्या सचमुच उनका इस कदर हृदय जल रहा है ?
आखिर क्यों ?
उसके हृदय का क्या मूल्य है ?.....क्या महत्व है ?...फिर क्यों जल रहा है व्यर्थ में ? कभी -कभी वह कोशिश करते, हृदय विचलित न हो। क्योंकि अगर वे अपनी पुरुषार्थ वृत्ति को सक्रिय न करेंगे तो एक दिन उनका अस्थि पंजर खाक हो जावेगा। ऐसी दशा में, तब उनके आश्रित तीनों प्राणी दर-दर की ठोकरें खायेंगे... भीख माँंगेंगे।
पर ज्यों ही माँं की बूढ़ी तस्वीर... बच्ची का मार्मिक क्रन्दन और पत्नी की थिगड़ों थिगड़ों मे लगे, थिगड़ों की द्रावक दृश्य सामने आता है, वह सोच में पड़ जाता है। उनका शरीर फिर चैतन्य सा हो जाता है.....वह अपने में खो गये थे। भूलते जा रहे थे कि सबेरे उठकर सेठजी के यहाँ जाना और रात्रि में वापस आना है यही उनके जीवन की अनवरत दिनचर्या है।.......
राधाचरण की माँ ने कहा- ‘राधा तुमने सुना आज बेनीराम का बड़ा बेटा मर गया है कितना सुशील था।.....प्लेग की बीमारी फैल रही है, कल बीमार आज साफ...। ‘राधाचरण का हृदय अपनी माँं के उक्त कथन को समझ गया था जिसमें एक आग्रह छिपा था कि प्लेग फैल रहा है। कहीं अन्यत्र चलने का इन्तजाम करो....पर अब उनके समक्ष ऐसी बातों का कोई महत्व न था। उपदेशात्मक सा रूखा उत्तर दिया माँं को। “माँ जन्म और मृत्यु तो संसार का अटल नियम है।”
राधाचरण सोच रहा था कि अच्छा हुआ जो उसने अभी से संसार को तिलांजलि दे दी। फिर गरीब को ही तो अपनी मृत्यु से, स्वर्ग का अपूर्व आंनद मिलता है। उसने अपनी माँ को जीवन से विरक्तता का उपदेश दे दिया।
राधाचरण की वैराग्यमयी बातों से माँं अत्यधिक संतप्त थी, किंतु फिर भी मूक।......वह क्या करती ?
प्लेग का फैलाव आशंकानुसार भयंकर होता गया। गिल्टी की असह्य वेदना से तड़पकर मानव मृत्यु का ग्रास बनने लगा। इसमें प्राणों का कोई महत्व नहीं था। मुहल्ले के कई लोग सामूहिक रूप से यत्र तत्र पलायन कर रहे थे, जिन्हें मृत्यु से भय था। किंतु राधाचरण अटल थे। उनने तो मृत्यु से द्वन्द्व करने की ठानी थी।
राधाचरण प्रातःकाल जब सेठजी के यहाँ गये, तब ताला बन्द कर वे कुछ सामान मोटर पर रखकर बाल बच्चांे और सेठानी सहित कहीं बाहर जा रहे थे, जाते देखकर राधाचरण लपके। मोटरकार ‘स्टार्ट’ हो चुकी थी, सेठजी... पुकारा राधाचरण ने।
‘सेठजी’... राधाचरण डरते डरते पुनः बोले- ‘माह का अन्त है कुछ......उनका आशय तनखाह को संकेत करता था। ओह रुपये... मानो सेठ जी प्रगाढ़ निद्रा से जागे हों... राधाचरण, रुपये वापस आने पर दूँगा। एक माह में ही तो वापस आ जाना है। अच्छा..........कहकर फिर अपने पाकिट में हाथ डाला- ‘लो ये पाँच रुपये, बाकी आने पर.....
राधाचरण ने अपने काँपते हाथ बढ़ाये। एक माह का खर्च और पाँच रुपये ! नोट छूटकर स्वयं गिर पड़ा......!
मोटरकार स्टार्ट होकर भाग रही थी और राधाचरण के नेत्र भी उसी के साथ भाग रहे थे.....!!
राधाचरण का दिमाग घूम गया। उसकी वेदना विकृत हो गयी। उसमें पागलपन सा आ गया था। बिना कारण ठहाका मारकर हँसना, कभी रोना इत्यादि इसके प्रकट लक्षण थे। कभी कभी बात करने पर वह कमला को भी मार देते। माँं को गाली बक देते। डरावने लगने लगे थे, यहाँ तक बच्ची भी उनके पास जाने में सहमने लगी थी। कभी कभी राधाचरण अपने कपड़े फाड़ डालते थे। कई बार अपना सिर पत्थर पर पटक चुके थे। कई घाव हो गये थे।
कमला को बुखार चढ़ा था। शरीर से आग की लपटें निकल रहीं थीं। कमला को गिल्टी भी निकल आयी, भारी वेदना थी। वृद्धा माँं रोती हुई राधाचरण के पास आयी ‘बेटा, बहू के गले में दर्द हो रहा है। चलकर देख तो ले, राधा की देह से कैसी आग की लपटें निकल रही हैं। चल रे वह अभागिन तेरे पाँव छूने के लिए रो रही है, चल राधा बुला रही है.....वृद्धा जी भरकर रोयी। आँखांे के आँसू समाप्त हो गये। पर राधाचरण टस से मस न हुये। माँ की सभी कोशिशें व्यर्थ हो गईं थीं।
रात भर कमला अचेत रही। वृद्धा और बालिका सिसकियाँ भरती रही।......
दूसरे दिन प्रातःकाल। जब अरुणिमा क्षितिज पर छिटक कर सूर्य के उदय होने का सन्देश दे रही थी, तब कमला के नश्वर शरीर मे प्राण छटपटाये और उस क्षणिक लाली के साथ विलीन हो गये। वृद्धा चीख उठी ! बालिका बिलख उठी !!
राधाचरण का कहीं पता ही न था। पत्नी की मृत्यु के पूर्व ही वह भाग गया था। संसार से संघर्ष करने लेकिन किससे.... ? कहाँ....? किसी को पता नहीं.......?
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’