संकल्प
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
उषा की झपकी खुली। उसने देखा, विपिन अभी भी लिख रहा था। उसने अंगड़ाई ली। आँखें मलकर घड़ी की तरफ निहार कर बोली -“एक बज गया श्री मान्जी, आज सोने का विचार नहीं है ?”
विपिन लिखने में तन्मय था। पहली दूसरी अंगुली के मध्य में दबी सिगरेट बुझ गयी थी। बुझी सिगरेट जला कर वह बोला -“बड़े अच्छे मूड में हूँ, उषा थोडी देर और।”
“हे राम कब तक तुम्हारी थोड़ी देर चलेगी।” ऊबकर उषा ने कहा “जानते हो श्रीमानजी, मैं एक झपकी सो चुकी हूँ ?”
“जानता हूँ।” कहकर विपिन जल्दी जल्दी लिखने लगा।
उषा क्षण भर मौन रही। विपिन के मुख से इंजिन की तरह निकलता हुआ धुआँ ताकती रही। भावों के उतार चढ़ाव देखती रही। जब उसे मौन खलने लगा, तब उसने नारी का वशीकरण मंत्र छोड़ा। हृदय का माधुर्य शब्दों में उड़ेल कर वह बोली -“सुनो.......”विपिन का हाथ न रुका।
“सुनते हो ?”
“कहो।”
“मानो तो कहूँ ?”
“कहो।”
“अब बंद कर दो भाई।”
विपिन हँस पड़ा , उषा के इस लोचदार आग्रह पर उसके मुख पर चालाकी को पढ़ कर बोला -“हो तो बड़ी उस्ताद मेरे साथ चारसौ बीसी करना चाहती हो।”
उषा मन ही मन मुस्करा दी आग्रह की पूर्ति न देख झुँझला उठी।
“जब मानना ही न था , तब विश्वास देकर पूछा क्यों”
“क्या पूछना भी जुर्म है ?”
“देखो बातें न बनाओं”
“अच्छा”
“बंद कर लो नहीं तो फाड़ दूँगी किताब”
“फाड़ देना”
“किताब ! तुम्हारी कहानी की किताब !! समझे....”
“कहानी की किताब ? अरे बाप रे...” विपिन का हाथ रुक गया। गम्भीर बनने का प्रयत्न करते हुए उसने गरम-गरम साँस छोड़ी और किताब उठा ली। वक्ष से लगा कर बोला -“यह किताब तो अनमोल है, उषा जिस दिन यह न होगी, समझ लो मैं न रहूँगा।”
“अच्छा इसमें कौन सी निधि छिपी है ऐसी ?”
“मेरे प्राण-मेरी आत्मा ?”
“कैसी आत्मा ?”
“रात के बाद किसका जन्म होता है, जानती हो ?”
“सबेरा।”
“सबेरा नहीं, उषा कहो जो मेरी आत्मा है। प्राण है... समझ गयी न” ?
“ओह, तो उषा तुम्हारी आत्मा है”
विपिन फिर लिखने लगा। उषा ने पूछा -“किसकी, कहानी लिख रहे हो ?”
“उषा की” विपिन ने कहा।
“जरा अन्त तो सुनूँ।”
“अन्त इस तरह है कि उषा का एक प्रेमी, उषा का अंतिम चुम्बन ले, उषा की गोद में मर गया”
उषा काँप गयी कुढ़ कर बोली -“बड़े निर्मम हो। अंत इसी तरह करोगे ?”
“अच्छा......इस तरह नहीं”?
“इस तरह कि उषा अपने प्रीतम के बाहुपाश में नहीं ........चरणों में माथा रखका हमेशा के लिए सुख की नींद में सो गयी” उषा ने कहा।
“ऐसा नहीं” विपिन ने चिढ़ाया।
उषा ने हुकूमत से अपना अधिकार भरा उत्तर दिया -“अंत इसी तरह होगा।”
उषा बाल-विधवा था। आठ बरस की अबोध कन्या थी, तभी उसे वैवाहिक सूत्रों मे बाँध दिया गया था। उषा का जब बचपन था, तब खेलने कूदने के अतिरिक्त उसे किसी भी बात की फिकर न थी। उसमें तब यौवन की हरियाली न थी। आँखों में रसीलापन न था। हृदय में मधुर उमंगे न थी।
शादी के बाद साल मुश्किल से गुजर पाया था कि शादी के धागे टूट गये। दस वर्षीय अबोध पति हमेशा हमेशा के लिये चल बसा पति मृत्यु नारी के लिये आमरण दुख देने वाली पीड़ा है। गहरे सड़े घाव की तरह है जो हर दम मवाद से भरा रहता है। किन्तु पति मृत्यु से उषा के दिल पर विशेष गहरा प्रभाव नहीं पड़ा।
पति मृत्यु पर नारी छाती पीट, सिर पटक, बाल नोंच नोंचकर क्यों रोती हैं, उषा की समझ के बाहर की बात थी। यह बात उसके लिये गूढ़ और जटिल था। जब उषा ने देखा उसकी माँं रो रही है, बाप की आँखें डबडबाई हैं, तब हठात् उसे भी उनका अनुसरण करना पड़ा। उनको रोता हुआ देखकर आँसू उसके भी निकल पड़े।
उषा की माँं ने उसकी अनिच्छा पर भी हाथों की चूडियाँ फोड़ दीं। बाप दो सफेद धोती बाजार से ले आया। उसे आज्ञा मिली कि वह सफेद साडि़यों को ही पहिना करे।
इन सब प्रतिबंधनों और समाज के रिति रिवाज से अनभिज्ञ उषा धीरे धीरे बढ़ने लगी। उसे महसूस हो चला, उसमें शारीरिक परिवर्तन होता जा रहा है। आँखों मे रसीलापन हृदय में अनाष्टक ज्वार सी उमंगे। उषा सोचती किस काम के हैं ये सब। जब वह विधवा है। कडुवाहट और फीकापन चखने का आदेश है, तब यह सब वैचिन्न्य क्यों उसमें पनप रहे हैं ? जहाँ पति गया वहीं चले जायें सब। उसे न सतावें न उकसावें।
उषा जब संयत होती, तब गम्भीर बन कर वह यह भी सोचती थी। किसने कहा था कि बचपन में माँं बाप उसकी शादी कर दें। क्या वह भागी जा रही थी या कुकर्मों के पथ पर थी ? उसने विनती नहीं की थी कि माँं बाप उसकी शादी कर दें। ढोंग धतूरा रचाकर गुड्डा गुड्डी सा ब्याह कर दिया। शादी तो सामाजिक कर्क्तव्य के साथ ही दो आत्माओं का एकीकरण। इन सब कृत्यों का दोष तो माँं बाप के माथे पर है। वे ही क्यों न इस दंड को भोगें और प्रायश्चित करें ? उसके कोमल सीने पर दुनियाँ क्यों आग जलातीे है ? अब वह और अधिक दुख न झेल सकेगी। जब उसने कोई पाप नहीं किया तब वह कष्ट सहे तो क्यों।
उषा अपने इस अधीरता में सही बातें भी भूल जाती थी। माँं बाप जो कुछ करते है। अपनी संतान के सुख के लिये। उनकी समझ में यही बात अत्युत्तम होगी। आज यदि कहीं उसका जीवन सुखमय होता तो क्या वह ढिंढोरा पीटती कि वह सुखी है ? बिगड़ना और बनना भाग्य का खेल है। उसका दुर्भाग्य था, बर्बाद हो गयी। माँं बाप ने क्रूर बनकर उसका सिन्दूर नहीं पोंछा था। उसका सुख नहीं छीना। विधाता को यही मंजूर था। विधाता ही ने सब कुछ किया है फिर निर्दोष माँं बाप को दोष दे तो क्यांे।
उषा के पिता हनुमत प्रसाद बड़े हमदर्द थे। उषा के प्रति वे उसे हद से अधिक चाहते थे। उन्हें जितना अपने दोनों लड़कों का ख्याल न था। उससे अधिक वे उषा को चाहते थे। यद्यपि वे गरीब थे, फिर भी उषा जो कहती वे तन-मन से पूरा करते। हनुमत प्रसाद को ज्ञात था उनकी बेटी गंगा की तरह पवित्र है, देवी है, निष्कलंक है, उसका जीवन पुनः हरा भरा हो सकता है। उन्होंने साहस करके भी देखा, पर जब समाज रूपी शेर के पंजो के खूँखार नाखून निकले दिखे तो सहम गये। उसकी दहाड़ थी कि वे इस दुस्साहस कार्य को यदि कार्यरूप में परिणित करेंगे, तो खाल खंेच लेंगे। तब हनुमत प्रसाद डर गये। समाज से लड़ने की कूबत उनमें नहीं थी। सच तो है समाज के भीतर जूठी हंडी की भाँति हनुमत प्रसाद कैसे जीवित रह सकते थे।
बाप के इस कुंठित प्रयास को देखकर उषा ने साफ कह दिया, कि वह शादी नहीं करेगी।
उषा ने वैधव्य जीवन बिताने का संकल्प कर लिया। शेष जीवन शिक्षण कार्य मे खपाने का उसने निश्चय किया। उषा हिन्दी में विशारद की परीक्षा दे चुकी थी। चार साल पढ़ कर वह बी.एड. भी पास कर चुकी थी। इसलिये प्रखर बुद्धि के कारण उसे समाज में अच्छा स्थान मिल गया। उषा इसी तरह दिन काट रही थी कि उसके जीवन में अकस्मात् विपिन आ गया।
रूपा विपिन की बहिन थी। उषा की सहेली थी। दोनों में प्रगाढ़ प्रेम था। रूपा ने उषा की कापियाँ में लिखे लेख विपिन को बताये। हर लेखक मित्र लेखक के प्रति बहुत जल्दी द्रवित व प्रभावित हो उठता है। जैसे वे पूर्व जन्म के चिर संस्कारों में जकड़े हों और फिर उषा तो एक जागरूक नारी थी। जिसके शब्द शब्द में क्रांति की पथ प्रदर्शक ललकार थी।
एक दिन रूपा जबरन उषा को अपने घर ले आयी। रूपा ने विपिन से परिचय करवाया।
“ये हैं विपिन, मेरे भैया.... और .....ये उषा, -बहुत ही अच्छी विचारक”
दोनों के श्रृद्धा भरे दिलों ने अभिवादन किया। खो से गये क्षण भर के लिये। जाने क्यों उषा ने सिर झुका लिया। अंदर से उठे अपने असंतुलन को धिक्कार उठी। अनाधिकार चेष्टा का उसे पश्चाताप् भी हुआ। उषा उस दिन कोई बात न कर सकी। विपिन सम्पन्न और कुलीन था। पिता त्रिभुवननाथ नगर के सम्मानीय रईस थे। विपिन के दिल में उषा के गुण चित्र की तरह खिंच गये थे। उषा लाख कोशिश करती रही कि अपना अभागा जीवन विपिन के जीवन मे सम्मिलित कर उसे बर्बाद न करे। किन्तु उषा अपने निश्चय पर कायम न रह सकी। दोनों प्रेम के डोर मे बंध गये।
विपिन ने कहा एक दिन “उषा, आखिर कब तक यह दुख भरा जीवन बिताओगी।” उषा ने वेदना से मुरझाया चेहरा झुका लिया।
विपिन ने उषा के कन्धे पर हाथ धर पूछा “सुनो, क्या तुम शादी करोगी”
दिल धड़क उठा उषा मौन हो गयी। आँसू भरी आँखें ऊपर उठी मानों वे कह रहीं थीं। “मै विधवा हूँ , विपिन बाबू !”
“मैं सब कुछ जानता हूँ । तुम हाँ भर कह दो। मैं सब बन्दोबस्त कर लूँगा।”
उषा विपिन के वक्ष से लिपट गयी। सिसक सिसक कर रो उठी विपिन का वक्ष भींगने लगा। उसने आँसू पोंछे प्रबल आग्रह कर कहा “हाँ कह दो उषा।”
और उषा ने रुधे कण्ठ से कहा -“आप देवता है। विपिन बाबू”
विपिन का निश्चय सेठ त्रिभुवननाथ को मालूम हुआ। वे उबल पड़े।
“यदि विपिन ने मेरी इच्छा के प्रतिकूल यह ब्याह किया, तो वह मेरी जायदाद में से फूटी कौड़ी का हकदार न होगा।
माँं बेचारी तो मोम होती है। रुदन का तीखा अस्त्र उसके पास रहता है। माँ ने रो धो कर उसी अस्त्र का प्रयोग किया।
“बेटा, तेरे इस कृत्य का असर तेरी जवान बहनों पर क्या पड़ेगा कभी सोचा है तूने ? कौन कुलीन गृहस्थ अपने लड़के की शादी उनसे करेगा ?”
“आपका यह ख्याल है, कि मैं कुमार्ग पर जा रहा हूँ ?” भावावेश से लाल हो विपिन ने पूछा। माँ बोली “मेरा ऐसा ख्याल किंचित भी नहीं। बेटा, पर हम समाज के बाहर तो नहीं है ?”
“तो मुझे समाज के बाहर समझो माँ समझ लो, विपिन तुम्हारा कोई नहीं मैं घर छोड़ दूँगा।”
माँ यह कैसे बर्दाश्त कर सकती है कि उसका बेटा घर छोडकर चला जाय। विपिन के अडिग कथन पर वह तड़प उठी। बहुत समझाया तरह तरह से मनाया। जब वह थक गयी, तब श्राप देने पर उतर आयी। हृदय की असीम करुणा गाली बनकर उसके मुख से निकलने लगी।
“माँं का दिल दुखाकर तू कभी सुखी नहीं रह सकता विपिन। तू बहक गया है, अभागे ! जीवन भर तू चैन से नहीं रह सकता।
मित्रों ने कहा “विपिन ,तुम्हारा निश्चय प्रेरक और पथ प्रदर्शक है। तुम प्रगति पथ पर बढ़ रहे हो किन्तु तुम्हारा मार्ग काँटों से भरा है, पहले यह समझ लेना।” विपिन पत्थर की तरह दृढ़ रहा। उसने उषा से शादी कर ली। दूसरे दिन विपिन ने शहर छोड़ दिया। अभी तक दोनों बेकार थे। उषा दिन रात चिन्तित रहती थी। जैसे उसे अपने कृत्य का पश्चाताप् शूल की तरह चुभ रहा था।
एक दिन उषा ने कहा -“तुम्हारा हँसी खुशी से भरा जीवन मैंने बर्बाद कर दिया। ईश्वर ने मुझे मिटाया, मैंने तुम्हें विपिन बाबू ! समझ में नहीं आता क्या करूँ ? लाख यत्न किये कि प्रसन्न रहूँ पर जाने क्यों दिल मुझे धिक्कारता रहता है।
विपिन ने उससे पूछा “मेरी परीक्षा लेना चाहती हो ?”
“आपको इतना विश्वास है कि उषा अपने सर्वस्व से झूठ बोलेगी।” कहते कहते उषा का गला रुंध आया। हृदय का उत्पीड़न पुतलियों की राह झलक उठा’।
उषा के वेदनाजन्य कण्ठ से निकले निचाट सत्य विपिन के मर्मस्थल में पैठ गये। आँखों में नेह के बिंदू झलक उठे। आगे बढ़कर उषा की गीली आँखें चूम ली उसने !
“उषा !” उषा के सिर पर हाथ फेर कर दार्शनिक की तरह विपिन बोला “रोने वाला अध्याय खत्म हो गया अब हँसने की बारी है। दिल छोटा न करो। हमें नई जिंदगी बसाना है, एक नये संसार का निर्माण करना है। आँसू पोंछो इन मधुर नयनों में विषाद के ये काले बादल जँचते नहीं। चलो, आज से हम भावनाओं को काव्यमय करें। सोचो तो, दुनिया कितनी चकित होगी, जब हमारा क्रांतिमय रूप वह देखेगी ?”
उषा ने विपिन का उपदेश सुना हो या न सुना हो किन्तु उषा में नव स्फूर्ति ...नवजीवन आ गया उस दिन से।
पहलू बदल गया था। उषा को शाला में शिक्षिका का पद पुनः मिल गया था। और विपिन को दैनिक समाचापत्र में सहसम्पादक का पद। विपिन के रचनात्मक विचारों, प्रेरक शैली से उसके चहेतों का एक खासा बड़ा वर्ग तैयार हो चुका था। युवकों का तो वह प्रेरणास्त्रोत बन गया था। कुछ लोग तो उसे सामाजिक क्रांति का जनक कहने लगे।
दोंनो का सुखमय जीवन चल रहा था, इस तरह दिन ढलते रहे। एक दिन उषा ने दोनों के जीवन पथ पर एक और साथी के शामिल होने की जब संभावना व्यक्त की, तो विपिन प्रसन्नता से नाच उठा- “तो नन्हा मुन्ना आयेगा हमारे घर। हमारी संकल्पमय भावनाओं का नया स्वर! नाम क्या सोचा है ?
“उषा ने मुस्कराकर सिर झुका लिया विपिन को अपनी गलती महसूस हुई बोला “मैं भी कैसा बुद्धू हूँ ! उषा, लड़का लड़की जाने बिना नामकरण कैसे हो सकता है ? ...छोड़ो इसे... पूछो मुझसे, उस शुभ घड़ी में मेरी क्या योजना होगी ?......शहनाई बजवाऊँगा ! तुम्हें पसंद है न ? किन्तु शहनाई तो शादी के अवसर ही फबती है। लोग क्या कहेंगे.....? .उषा शहनाई ही बजेगी। अपने विवाह के समय नहीं बज सकी- अब बजेगी। कितना सुखद दिन होगा वह’।”
’वह शुभ दिन भी आ गया। शहनाई वादक कल्लन मियाँ एकाग्र भाव से, तन्मय हो शहनाई बजा रहा था। पुत्र के जन्म पर उसके हितैषी उसे बधाई दे रहे थे। वह भाव विभोर सबका अभिवादन कर रहा था। उसे पता ही न चला, माता पिता कब आ गये। माँ ने आशीर्वाद के रूप में जब उसका कंधा थपथपाया तो वह उनके चरणों पर गिर पडा।...........दूर खड़े पिता बाबू त्रिभुननाथ अपनी आँखों में छलके प्रेमाश्रु पोंछ रहे थे । और कल्लन मियाँ अपनी ही धुन में झूम रहा था।
उन सबसे दूर, शयन कक्ष में लेटी उषा अपने नन्हें पुत्र के नामकरण की बात अब सोच रही थी।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’