सिंहनी
सरोज दुबे
सरोज दुबे
पार्वती को मरे आज पंद्रहवाँ दिन था। लगभग सभी रिश्तेदार जा चुके थे। सरबती, मुन्नी को कुछ दिन और रोकना चाहती थी, पर उसका पति गिरीष उसे छोड़ने के लिए तैयार नहीं था। अभी तीन बजे की बस से वे दोनों जबलपुर जा रहे थे। मुन्नी उदासीन भाव से बैठी अपनी संदूक जमा रही थी।
तभी पड़ोस की ष्यामा मौसी ने पूछा-”अब कब आएगी बेटी! मुन्नी ने अपने आद्र्र नेत्रों को उठाकर एक बार उन्हें देखा फिर रो कर बोली-” अब क्या आऊँगी, मौसी! सच पूछो तो हमारी माँ तो मर गई। अम्मा ने हमारे लिए किया ही क्या? सब कुछ करने वाली तो पार्वती-बुआ ही थीं। उसी ने हमें छोटे से बड़ा किया, पढ़ाया लिखाया, शादी ब्याह किया।”
आज तक सरबती ने पार्वती की कितनी गुण गाथा नहीं सुनी! कितनी बार उसके ईश्र्या दग्ध प्राण बावले नहीं हुए। पर आज अपनी खुद की बेटी मुन्नी के मुख से यह निष्कर्ष सुनकर हृदय हाहाकार कर उठा। क्या सच में ही उसने बेटे नरेश और बेटी मुन्नी के लिए कुछ नहीं किया। वह चुपचाप उठकर अंदर के कमरे में चली गई। पिछला सारा जीवन उसकी आँखों के सामने पिघल पिघलकर बहने लगा...।
करीब पच्चीस-छब्बीस वर्ष पहले की बात है। उसके पति दीनानाथ मिल में काम करते थे। सरबती के पिता का दिया हुआ मकान था। सब कुछ बड़े आराम से चल रहा था। किसी बात की कमी नहीं थी। तभी मिल में छटनी शुरू हुई और दीनानाथ छटनी में निकाल दिए गए। रोजगार कभी किया नहीं था और नौकरी के लिए कभी कोई जुगाड़ लगा नहीं। अतः फाँके पड़ने की नौबत आ गई। आज भी उन दिनों की याद करके सरबती के मन में सिहरन सी भर जाती है। कैसे भयंकर दिन थे वे! दीनानाथ दिन भर रोजी रोटी की तलाष में यहाँ-वहाँ भटकते और रात को आकर सुंदरकांड का पाठ किया करते।
गली के नुक्कड़ पर स्थित दुकानदार ने भी उधार देना बंद कर दिया था। बस नैया डूबी ही जा रही थी कि किसी से पार्वती को यह समाचार ज्ञात हुआ।
पार्वती दो वर्ष पहले ही विधवा हुई थी। वह गाँव में रह कर अपनी ख्ेाती बाड़ी देखा करती थी। खेतों की बुआई का काम नौकरों पर छोड़ कर वह तीसरे ही दिन अपने दीनानाथ भाई की खोज खबर लेने आ गई थी। उसने आते ही अनाज वाले और किराने वाले का कर्ज चुकाया। भौजाई के गिरवी रखे गहने छुड़वाए। उसके उपकारों के कारण भाई-भौजाई दोनों दब गए। पार्वती भी बच्चों के साथ ऐसे हिल मिल गई कि फिर सारी खेती बाड़ी बेच कर उन्हीं के पास आकर रहने लगी।
कुछ माह बाद दीनानाथ पुनः नौकरी पर ले लिए गए। पर पार्वती का मान सम्मान ज्यों का त्यों रहा। दीनानाथ अपना वेतन लाते तो उसी के हाथ में दे देते। घर का कोई भी काम पार्वती की इच्छा के बिना नहीं हो सकता था। कपड़े से लेकर जूते चप्पल तक पार्वती की मर्जी से आते। तरकारी बैंगन की बनेगी या गोभी की, दाल अरहर की बनेगी या मूँग की, रोटी गेहूँ की बनेगी या बाजरे की इन सब बातों के फैसले का अधिकार पार्वती को ही था।
पार्वती की ससुराल में तमाम नौकर चाकर थे। उसने न वहाँ काम किया था न यहाँ करती थी। तब होता यह कि चूल्हा फूँकती सरबती और बच्चों के कौतुक देखने का सुख उठाती पार्वती। बच्चों को जन्म दिया था सरबती ने और बच्चों का प्यार पा रही थी पार्वती। घर का सारा काम काज करते करते हाड़ दुखते थे उसके, और मान पा रही थी पार्वती। यही कारण था कि कई बार सरबती और पार्वती में अच्छी ठन जाती।
”क्यों रे, नरेश डिब्बे के लड्डू क्या हुए ?”
“मुझे क्या पता!” नरेश अनजान बनते हुए बोला था।
“हरामी उल्लू बनाता है।” सरबती ने कान पकड़कर दो तमाचे जड़ दिए थे।
नरेश जोर से चिल्लाकर रो दिया। आवाज सुनकर पार्वती अंदर से दौड़ी आई।
आते ही नरेश से पूछा-”काहे रो रहा है रे?”
“अम्मा ने मारा”- नरेश ने रोते-रोते उत्तर दिया।
“सारे लड्डू खा गया। मारूँगी नहीं तो क्या तेरी पूजा करूँगी?”- सरबती गुस्से में बोली।
“खा गया तो खा गया। बच्चा है, तेरे हाथों में इतनी आग है, तो दीवार में पटक लिया कर। जब देखों तब बच्चों को मारती रहती है।”
“अरे महारानी तेरे ही लाड़ प्यार से बच्चे बिगड़ रहे है।”-सरबती ने उलाहना दिया।
”बिगड़ने दे, हमारे बच्चे हैं। तू क्या अपने मायके से लाई थी, हरामजादी! सुबह भी लड़की को पीटकर रख दिया।”
”ऐ! ये तेवर अपने भाई को दिखाना समझी। मुझसे बात करनी है, तो सीधे मुँह किया कर।”
पार्वती समझ गई कि ज्यादा बोलना ठीक नहीं है। वह बात बढ़ाए बिना नरेश को छाती से लगाए अंदर चली गई।
घर में यह नाटक आए दिन चलता रहता। पार्वती के कारण बच्चे मनमानी करते रहते। सरबती अंदर ही अंदर कुढ़ती रहती। जब किसी बात को लेकर वह बच्चों पर नाराज होती तो बच्चे बुआ के आँचल का आश्रय लेकर निर्भर हो जाते और वह चीखती-खीजती रह जाती।
सरबती बहुत बार सोचती, कितना अच्छा था वह समय, जब वह घर की मालकिन थी। घर में रूखा-सूखा बनता था, पर किसी से पूछने की जरूरत नहीं थी।
अब तो हर बात पार्वती से पूछनी पड़ती है। कभी वह पूछती- ”क्या तरकारी बनानी है?”
पार्वती के मन में आता तो बटुए में से पैसे निकालकर दे देती। कहती फलाँ तरकारी ले आ, नहीं तो मुँह बनाकर कहती- “दाल बघार ले, रोज-रोज क्या तरकारी बनेगी। आमदनी अठन्नी और खर्चा रुपईया।
सरबती गुस्से से बोलती नहीं थी। चुपचाप चली आती। मन में कितने ही सवाल बनते बिगड़ते रहते। अभी किसी मेहमान को आने दो फिर देखो कैसा खर्च होता है। किलो-किलो भर तरकारी आएगी। पूरन की रोटी बनेगी, भजिए कचैड़ी, श्रीखंड सब बनेगा। तब नहीं दिखता खर्च!
भोजन की थाली देख कर दीनानाथ पूछते-“क्यांे आज तरकारी नहीं बनाई?”
”जा कर मालकिन से पूछो”-सरबती जलती हुई आँखें उठा कर कहती। तब चुपचाप दीनानाथ सब्जी की खाली टोकरी से दो तीन हरी मिर्च उठाकर भोजन करने लगते।
उस दिन सुबह दीनानाथ रामायण पढ़ रहे थे।
कत विधि सृजीं नारी जग माहीं
पराधीन सपनेहँु सुख नाहीं।।
फटी साड़ी सीते-सीते सरबती अचानक हँस पड़ी। रामायण खत्म करके दीनानाथ ने पूछा-“काहे हँस पड़ीं ?”
“अरे पढ़ते तो हो रामायण, पर गुनते भी हो ?”
...यह देखो साड़ी, कितनी जगह से फट गयी है। बोलो, है हिम्मत नई साड़ी दिलाने की ? अपनी बहन के आगे तो जैसे जबान ही नहीं खुलती।”
एकादशी का दिन था। पार्वती बच्चों को लेकर मंदिर गई्र थी। दीनानाथ अपने स्वर को नर्म बनाकर बोले-“तू बेकार नाराज होती है, अपने से बड़ी है। उसकी दो बात सुनने में कुछ बिगड़ता है अपना।”
“रहने दो, मुझसे यह खुशामद नहीं होती, सारा दिन ढोर की तरह काम करती हूँ, तब कहीं पेट भर खाने को मिलता है। मैं क्यों सुनूँगी उसकी ?”
“कुछ कहो तो बस सिंहनी की तरह दहाड़ने लगती है। अरे, कहाँ लेकर जाने वाली है ? सब तेरे बच्चों का ही तो है। अपने बच्चों के लिए लोग क्या क्या नहीं करते। और एक तू है कि किसी के दो बोल नहीं सुन सकती। बता तो, वह कौन अच्छे कपड़े पहने घूमती है?”
“मैं क्या उसे मना करती हूँ ? वह विधवा औरत, उसके पीछे क्या मैं भी उसी की तरह बन जाउँ ?” तभी बच्चे दौड़ते हुये चले आए और पति और पत्नी का वार्तालाप बंद हो गया।
कभी कभी सरबती बड़ी ललक से नरेश और मुन्नी को आपने पास बुलाती लेकिन बच्चे रूखे स्वर में पूँछते-क्या है अम्मा, बोलो न!” वह स्नेह से उनके मुख पर हाथ फेरती। बच्चे पार्वती के चिकने नर्म हाथों के स्पर्श के अभ्यस्त थे। वे झट उसका हाथ झटककर कहते-“ओह! कितना खुरदरा हाथ है अम्मा तुम्हारा!” हाथ के खुरदरा होने का मर्म बेचारे बच्चे क्या जाने। स्नेह का बहता óोत तुरंत सूख जाता। वह तड़पकर कहती-“जाओ, मरो बुआ के पास।” प्यासा मन प्यासा ही रह जाता।
बच्चे बड़े हुए, उनकी शादी ब्याह हुए, पार्वती की मर्जी से। मान-पान पाया पार्वती ने। बहू ने आते ही घर का रंग ढंग समझ लिया। कुछ पूछना होता तो सीधे पार्वती से ही पूछती। कुछ कहना होता तो उसी से कहती। सरबती रात में बर्तन धोती रहती और बहू पार्वती के पैर दबाते हुए इठलाती रहती, कहती-“बुआ, कल हमारा जन्म दिन है। कल हमें नई साड़ी दिलानी पड़ेगी।”
पार्वती झूठा रोष दिखाकर कहती-“चल री, बहुत साड़ियाँ हैं तेरे पास। अभी साड़ी का नाम मत ले।”
लेकिन दूसरे दिन नई साड़ी आ जाती। पार्वती आस पड़ोस की औरतों को बुलाकर साड़ी दिखाती, कहती-“इन्हीं लोगों के तो दिन हैं, पहनने ओढ़ने के। अब हम लोगों का क्या है? कुछ भी पहन ओढ़ लिया।”
सरबती यह सब देखती तो मन मसोस कर रह जाती। उसकी साड़ी फट जाती, ब्लाउज भी बाँह से तार तार हो जाता है, पर उसके लिए न पार्वती को चिन्ता होती है, न दीनानाथ को।
पिछली बार दीवाली पर दामाद आया तो बोला-“बुआ जी आपने हमें शादी में घड़ी नहीं दी थी। अब की बार हम घड़ी लिए बिना नहीं जाएँगे।”
पार्वती हँसकर बटुए में से रुपए निकालकर कहती है-“भैया, तुम अपनी पसंद से ले लेना। मुझे घड़ी-वड़ी की समझ नहीं।”
पार्वती की ससुराल से ढेरों रिश्तेदार आते। पार्वती उनकी खूब खातिरदारी करती। रसोई में खटती रहती वह अकेली और वाहवाही लूटती पार्वती।
दीनानाथ उसे कई बार समझाते...“देख तुझे किसी बात की फिकर करने की जरूरत है भला। अब सब फिकर जीजी को है न। आने-जाने वालों की, शादी ब्याह की, बहू जवांई की। तुझे तो बस शरीर से मेहनत भर करना है।”
“तो क्या मैं काम करने की मशीन भर हूँ ? जिसे मान सम्मान की कोई जरूरत नहीं है? अरे लोहे की मशीन भी बिना नेह के नहीं चलती।” यहाँ तो उसे प्यार के दो बोल भी न मिलें। अपने बच्चे होकर भी वह उनके प्यार को तरस गई। पति कहने को सर का ताज था पर उसने भी पार्वती के सामने कभी उसका पक्ष नहीं लिया।
वह आज तक सब इतना क्यों सहती रही? इन्हीं दोनों पेट के जायों के लिए ही तो। नहीं तो दो जून की रोटी और तन भर कपड़े के लिए उस जैसी औरत को कोई इस तरह नचा सकता था भला! पर अंत में हुआ क्या! बली का बकरा बनी वह, और पूजी जा रही थी पार्वती। वह अंदर से बुरी तरह आहत हो चुकी थी। तभी उसकी विचार तन्द्रा टूटी।
“अच्छा अम्मा मैं जा रही हूँ” सरबती ने मुड़कर देखा मुन्नी थी।
उसने अपनी आँखें पोंछ लीं। द्वार पर रिक्शा आकर खड़ा था। नरेश, बहू तथा आस पड़ोस की महिलाएँ, बच्चे भी आकर खड़े हो गए थे। मुन्नी रिक्षे में चढ़ने लगी तो सरबती ने कठोर स्वर में कहा-“ सुन मुन्नी, अब तेरी माँ मर गई। खबरदार जो अब मेरे दरवाजे पर पैर रखा तो तुझे उसी की सौगंध है, समझी।”
इतना बोलते-बोलते उसकी साँस फूल गई, पर वह रुकी नहीं। पलटकर वह नरेश से बोली-“नरेश तू भी अपनी बहू को लेकर मेरा घर खाली कर। मुझे अब किसी की जरूरत नहीं है।”
और सरबती तीर की तरह घर के अंदर चली गई। सब लोग हतभ्रप देखते ही रह गए। दीनानाथ तो यों ही उसे सिंहनी कहते थे, पर आज सिंहनी का सच्चा नाद सुनकर, वे मुँह बाये खड़े रह गये। मुन्नी किसी तरह संभल कर रिक्षे में बैठ गई। पर नरेश का चेहरा पीला पड़ गया। तो दूसरी ओर अपनी सास के इस रूप को देखकर बहू पहली बार सहमी हुयी, एक ओर किनारे खड़ी थी।
सरोज दुबे
(प्रकाशित- मधुप्रिया)