सुबह का भूला
सरोज दुबे
सरोज दुबे
आशीष ने सिर उठाकर एक भरपूर दृष्टि मुझ पर डाली। पर आश्चर्य ! उनकी आँखों में आग नहीं थी। शांति से बोले- “मेरा मत तुम जानती हो। भाई साहब भी तुम्हें कई बार समझा चुके हैं। फिर भी यदि तुम अपनी जिद पर अड़ी हो तो मुझे सिर्फ एक बात कहनी हैं। तुम्हारे लिये घर पहले है, नौकरी बाद में-इस बात को याद रखना।”
आशीष के प्रवचन को मैंने कडुवी दवा के घूँट की तरह चुपचाप पी लिया। उनकी बहुत बोलने की आदत नहीं है। चुनकर एक बात कहते हैं और फिर उस बात से उन्हें डिगाना एकदम असंभव हो जाता है। वैसे भी इस बात को लेकर उनसे बहस करने का कोई अर्थ ही न था।
लेकिन मन एकदम खराब हो गया। लोग अपनी पत्नी को नौकरी लगवाने के लिये कितना कुछ करते हैं। जाने किस-किस की खुशामद करते हैं, कितने लग्घे लगवाते है और यहाँ बैठे बिठाये नौकरी मिल गई तो भी कोई खुशी नहीं। गनीमत थी कि भाई साहब नहीं थे वरना पता नहीं कितना तमाशा होता।
रात गहरा रही है...! आशीष की बातां को भूलकर मैं सोने की चेष्टा करती हूँ। पर आँखों में नींद नहीं है। कभी मन घर के तनावों में उलझ जाता है, तो कभी सुख के सपनों में खो जाता है। हाथ में घड़ी बाँधे, पर्स थामे, रेशमी साड़ी में लिपटी हुई, मैं व्यस्त भाव से स्कूल चली जा रही हूँ। बच्चों को पढ़ाते हुये, कापियाँ जाँचते हुये, अर्जुनदास की दुकान पर साड़ियाँ देखते हुये। स्वयं के कितने ही चित्र आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम जाते हैं। नींद कब लगती है, पता ही नहीं चलता।
सुबह जल्दी-जल्दी सब काम निबटाकर स्कूल जाने के लिये तैयार खड़ी हूँ। चिंटू-मिंटू पहले ही स्कूल जा चुके हैं। आशीष का खाना टेबल पर रखकर क्षमा माँगने के से भाव से कहती हूँ- “रात को बिल्कुल गरमागरम खाना खिलाऊँगी। इस समय दाल और सब्जी गर्म करवाकर खा लीजियेगा।”
“दूसरा उपाय भी क्या है!” आशीष का रूखा स्वर एक बार फिर हताष करता है। बुझे हुये मन से मैं चुपचाप बस-स्टाप की ओर चल पड़ती हूँ।
शाम को चाय-नाष्ते के बाद बच्चों को बाहर खेलने भेज देती हूँ। रात का भोजन, सुबह की तैयारी, तथा यूनिट टेस्टों के पेपर रात देर तक जागने को विवश करते हैं। सुबह शाम बस की प्रतीक्षा अलग थका देती है। इतना परिश्रम करने की कभी आदत नहीं थी । विद्यार्थी जीवन में जाग-जागकर पढ़ाई अवश्य की थी, किंतु तब दूसरी जिम्मेदारी ही कौन-सी थी? उस दिन बस में रेखा मिली तो देखते ही बोली- “अरे ...क्या हो गया तुझे? बीमार थी क्या? चेहरा कैसा सूख गया-सा लगता है।” मैंने भी यह महसूस किया था कि कीमती साड़ियाँ महंगे सौंदर्य प्रसाधान और डाक्टर द्वारा लिखे गये ताकत के नुख्से कांतिहीन मुख को दीप्ति प्रदान करने में असफल हो गये हैं।
उधर चिंटू-मिंटू के प्रगति पत्र पर लगे लाल निशान, उनके भविष्य के विषय में सोचने को बाध्य करते हैं। पर समय कहाँ हैं, उन्हें पढ़ाने के लिये! घंटे-डेढ़ घंटे में किसी तरह उनका होमवर्क निपटा पाती हूँ। कई बार वह भी नहीं हो पाता।
सावित्री के पैसे बढ़ाकर उसे दिन भर के लिये रख लिया है। लेकिन जिस दिन घर साफ-सुथरा दिखाई दे और बच्चे ढंग से तैयार मिले, उस दिन अपना भाग्य सराहने को जी करता है। आशीष की जेब और मेरे पर्स पर वह जब-तब हाथ साफ करती रहती है। उसके सिनेमा प्रेम के कारण कई बार थके उदास बच्चे घर की सीढ़ियों पर बैठे मिलते हैं। घर की वस्तुओं का अचानक स्थान परिवर्तन या गायब हो जाना, जाने कितनी बार गृहकलह का कारण बन चुका है। और उस दिन तो गजब ही हो गया । स्कूल से आकर देखा तो चिंटू महाशय पैर में मैली-कुचैली पट्टी बाँधे बैठे हैं। पता चला बड़े शौक से खरीदी चीनी-मिट्टी के डिनर सेट की एक प्लेट सावित्री के हाथ से गिर गई। उसी का एक दुकड़ा चिंटू के पैर में चुभ गया था। पैर में बँधी पट्टी पूरी तरह लहू-लुहान हो गई थी। मैं यह सोचकर भयभीत थी कि यह जो हुआ सो हुआ अब आशीष के आने पर एक और महाभारत...।
हुआ भी वैसा ही । आशीष ने घटना की सारी जिम्मेदारी मुझ पर थोप दी- “अब यह तो होता ही रहेगा। बिना गृहिणी के घर में बच्चों की यही दषा होती है।”
मैं एकदम संतुलन खो बैठती हूँ -“चिंटू-पिंटू गोद में लेकर बैठने लायक नहीं है और...। बच्चों के विषय में क्या मेरी ही जिम्मेदारी है? मैं सुबह से आधी रात तक काम करते-करते थक जाती हूँ, वह क्या आपको दिखाई नहीं देता?”
“किस बेवकूफ ने कहा है आपको इतना कष्ट करने के लिये ? आराम से घर में रह कर बच्चों को क्यों नहीं देखती!”- बिलकुल सीधा सपाट उत्तर!
तो यह बात है। मुझे भाई साहब की कही हुई सारी बातें अचानक याद आ गईं।
उन दिनों मैंने एक कॉलेज में आवेदन किया था। आशा थी कि वहाँ मेरी नियुक्ति हो जायेगी। पता नहीं भाई साहब को यह बात कैसे मालूम हो गई। रात के खाने के बाद उन्होंने मुझसे बिना किसी भूमिका के सीधे ही पूछा था- “षीला, किस बात की कमी है तुम्हंे?”
“मैं समझी नहीं क्या कहना चाहते हैं आप ?”
“मैंने सुना है तुमने किसी कॉलेज में आवेदन किया है। इसलिये पूछ रहा हूँ कि ऐसी क्या जरूरत पड़ गई नौकरी करने की ?”
“जरूरत की क्या बात है ? बड़े-बड़े आदमियों की पत्नियाँ और लड़कियाँ नौकरी करती हैं। घर में बैठे-बैठे मेरी षिक्षा का उपयोग ही क्या है?”
“भई अपना-अपना सोचने का तरीका अलग-अलग होता है। मुझे दूसरों से क्या मतलब? और फिर सब लोग जो कर रहे हैं, वह सब ठीक ही हो, यह तो कोई तर्क नहीं है। मेरा मत है कि नौकरी उन महिलाओं को करनी चाहिये, जिनके पीछे कोई सुदृढ़ आर्थिक आधार नहीं है। सामाजिक न्याय भी, कोई चीज है। जहाँ तक षिक्षा की उपयोगिता का प्रश्न है, तुम घर की जिम्मेदारियाँ निभाते हुये किसी भी सामाजिक क्षेत्र में कार्य करना चाहो तो मुझे प्रसन्नता होगी।”
“दरअसल बात यह है कि सुबह बच्चे स्कूल चले जाते हैं। घर में बैठे-बैठे बोर होते रहना मुझे बिलकुल पसंद नहीं है।”
“नौकरी कोई मन बहलाव की चीज नहीं है। वह थका देने वाली चीज है। जब तुम थक कर घर लौटोगी, तो घर की जिम्मेदारियाँ तुम्हें बोझ लगने लगेंगी। फिर अभी तो दो छोटे-छोटे बालकांे को भी तुम्हारी जरूरत है।”
“एक मैं अकेली ही तो नौकरी करने नहीं जा रही हूँ । हजारों स्त्रियाँ नौकरी करती हैं, सभी के घर परिवार हैं।”
“बात यह है कि जिन्हें जरूरत होती है, उन्हें कष्ट उठाना ही पड़ता है। उनके साथ-साथ उनके परिवार के लोगों को भी कष्ट उठाना पड़ता है और वे उठाते भी हैं परन्तु हमारे यहाँ तो ऐसी कोई जरूरत नहीं है कि पूरा परिवार तकलीफ उठाये।”
गुस्सा तो बहुत आया, पर उस समय ऐसी कोई बात याद नहीं आई, जिससे उन्हें निरूत्तर किया जा सके। मैं और कुछ कहे बिना तेजी से अपने कमरे में लौट आई।
आशीष लेटे हुये कोई पत्रिका देख रहे थे। मैंने उन्हें सुनाते हुये कहा- “इतने बडे़ आॅफीसर होकर भी पक्के दकियानूसी विचारों वाले व्यक्ति हैं। ये चाहते हैं कि दिन-रात सब लोग इनकी सेवा में हाजिर रहें। घर की पढ़ी लिखी स्त्रियाँ सिर्फ खाना पकाते हुये जिंदगी गुजार दें।”
“बकवास बंद करो। नींद आ रही है।” आशीष ने किताब रखते हुये कहा और आँखें मूँदकर पीठ फेर ली।
मुझे लगता है भाई साहब जरूर खूब पढ़ा कर गये होंगे। नहीं किसके घर में पुरूश नहीं है? सब आशीष की ही तरह हैं। इधर भाई साहब ने दो दिनों के लिये आने की बात लिखी है। आशीष ने कहने के पूर्व ही मैंने दो दिनों का अवकाश लेने की बात तय कर ली थी। फिर भी मुझे थी कि पता नहीं ऊँट किस ओर करवट बदले।
लेकिन आश्चर्य। मेरी नौकरी के संबंध में भाई साहब ने एक षब्द भी नहीं कहा। उल्टे आशीष को समझाते रहे- “थोड़ा-बहुत सम्हाल लिया करो भाई। बहू पर काम ज्यादा पड़ जाता है। बच्चों को ट्यूशन लगवा दो। षीला को फुर्सत नहीं है और तुम पढ़ाना नहीं चाहते, तब यही एक उपाय है।” जाते समय बोले थे- “छुट्टियों में सागर आना। और मेरे लिये छुट्टियाँ लेने की क्या आवश्यकता थी? मैं तो घर का ही व्यक्ति हूँ।”
मैंने मन-ही-मन उन्हें साधुवाद दिया था। उन्हें सराहा था। भाई साहब परिस्थिति के अनुकूल कार्य करना जानते हैं। आखिर इतने दिनों से ऊँचे-ऊँचे पदों पर कार्य जो कर रहे हैं।
उस दिन स्कूल जल्दी छूट गया था। नीता जिद करके अपने घर लिवा ले गई। वह स्कूल में पिछले दो वर्षों से कार्यरत थी और अपने विनोदी स्वभाव के कारण खूब लोकप्रिय थी। “जल्दी आ गई आज? सहेली को लाई हो। अच्छा...अच्छा...” नीता के बूढ़े ससुर जी ने हमें देखकर कहा और बाहर निकल गये। छोटी ननद उसके मुन्ने को तैयार कर रही थी। बड़ी ननद रसोई में व्यस्त थी। शायद उनका कहीं बाहर जाने का कार्यक्रम था। नीता ने अंदर जाकर कुछ कहा। थोड़ी ही देर में बड़ी ननद नाश्ता लिये प्रसन्न-मुख खड़ी थी। देवर नीता का संदेषा लेकर उसकी किसी सहेली के घर जा रहा था। मैं चकित सी, देखती हूँ...इतना बड़ा परिवार पर कहीं कोई तनाव नहीं...सब कुछ सहज गति से चल रहा है। और हमारे यहाँ...?
मैं लौटते समय सोचती हूँ शायद इनके यहाँ ससुर की पेंशन और पति की कमाई में गुजारा न होता होगा। शायद देवर की फीस नीता ही देती होगी... शायद ननदों के कपड़ों और किताबों की खरीदी वही करती होगी। शायद ससुरजी के लिये चश्मा उसी ने खरीदा होगा। शायद जहाँ जरूरत होती है वहाँ कष्ट सहने के लिये भी सभी तत्पर रहते हैं। भाई साहब ठीक कहते थे शायद...
यही सब सोचते हुये मैं घर पहुँचती हूँ। घर अव्यवस्थित सा पड़ा है। सावित्री बच्चों के कपड़े बदल रही है। मुझमें न तो घर को व्यवस्थित करने की शक्ति है, न सावित्री को डाँटने की। आशीष के आफिस से लौटने का वक्त हो गया है। मैं अपने आपको धकेलती हुई रसोई में ले जाती हूँ। शायद भाई साहब ठीक कहते थे- “नौकरी मन बहलाव की चीज नहीं, वह थका देने वाली चीज है।”
रात के समय अचानक निखिल दिखाई देता है।
“कैसा रहा इंटरव्यू?”-आशीष पूछते हैं।
“इंटरव्यू तो अच्छा रहा पर सिलेक्षन शायद पहले ही हो चुका है।” -उसका स्वर बुझा-बुझा सा है।
“अच्छा”।
“हाँ, वहाँ कुछ लोग कह रहे थे कि किसी पुलिस आफीसर की बेटी को लेने का निश्चय हो चुका है। इंटरव्यू तो यों ही...” वह बोलते-बोलते चुप हो जाता है।
उसके मौन में एक टीस है, एक दर्द है। मैं स्तब्ध रह जाती हूँ। भाई साहब ठीक ही कहते थे- “सामाजिक न्याय भी एक चीज है।”
लेकिन अब एकाएक यह सब बातें ठीक क्यों लग रही है? शायद बहुत सारी बातें मनुष्य जीवन की पाठशाला में अनुभव से ही सीखता है। शायद मन से विद्वेश निकल जाने पर ही सही बात की पहचान हो पाती है।
लिफाफा खोलकर देखती हूँ, भाई साहब का पत्र है। दिसंबर में छुट्टियाँ लेकर खुजरा जा रहे हैं और भी कई जगह घूमने का कार्यक्रम है। चिंटू और मिंटू को साथ ले जाना चाहते हैं। पत्र के अंत में लिखा है- “अच्छा होता यदि तुम और षीला भी साथ चलते।”
मन एकदम बच्चों की तरह मचल गया। कितने दिन हो गये कहीं घूमने नहीं जा सकी थी। और तो और शहर में ही माधुरी दीदी के यहाँ भी जाना नहीं हो सका था। घर से बाहर कहीं जाने का चाव ही मानो खत्म हो गया था। केज्युअल लीव का हिसाब करके देखा, छुट्टी लेने की कहीं कोई गंुजाइष नहीं थी।
लगा चंद सिक्कों के लिये बहुत कुछ दिया। बस और टेक्सी का किराया बच्चों की ट्यूशन , सावित्री का वेतन, धोबी का बढ़ा हुआ बिल देने के बाद जो रुपये हाथ में रह जाते थे। उसके लिये मैंने कितना कुछ खोया है- अपनी स्वतंत्रता, स्वास्थ्य और घर की सुख-शांति , यहाँ तक कि बच्चों का भविष्य तक दाँव पर लगा हुआ है।
मानों में एकाएक सोते से जाग गई हूँ। एक अजीब सी कशमकश की गिरफ्त से छूट कर मन मुक्त हो उठता है।
बँगले के सामने जीप तैयार खड़ी थी। शायद वे कहीं बाहर जा रहे थे। हम लोग टेम्पो से उतरे तो देखा वे मस्त भाव चले आ रहे हैं। और चिंटू-मिंटू भागकर उनसे जा लिपटे। वे चकित से बोले-“अरे...आने की खबर क्यों नहीं की? स्टेशन पर गाड़ी भिजवा देते। आशीष नहीं आया है।
“उन्हें छुट्टी नहीं मिली।”
“तुम्हें मिल गई।”
“मिली नहीं, ले ली।”
“कितने दिनों की।”
“हमेशा की।”
“ऐं...” वे हँसते हैं। आह्लादित होकर कहते हैं-“ अच्छा किया... बहुत अच्छा किया । सुबह का भूला यदि शाम को घर लौट आये तो भूला नहीं कहलाता।” क्षण भर रुककर चपरासियों की ओर देखकर बोले-“ अरे भाई, खड़े-खड़े क्या देख रहे हो? सामान अंदर ले चलो। मालती... कहाँ हो भई? देखो तो, बहू आई है... बच्चे आये हैं....” और खुशी की हल्की सी धूप सब ओर फैल गई-सी लगती है।
सरोज दुबे
(प्रकाशित-युगधर्म, नागपुर दीपावली विषेशांक 1987)