स्वतंत्रते!
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
चौदह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैंतालीस !
बादलों का घूंघट उठा ! नीला नभ, मौन ! एक सुख शांति का सन्देशा दे रहा था ! उस दिन उसने अपना अनूठा रूप दिखाया ! वह रूप जो भारत वासियों के लिए दुर्लभ था ! इतना शीतल, आकर्षक, नव प्रेरणात्मक कि भोले भाले भारतीय आत्मविस्मृत हो झूम उठे ! कौन प्रकाश की रश्मियाँ निहार रही है, उन उड़ते बादलों में से ! ओह स्वतंत्रते !! सदियों परतन्त्र मानव की बेडि़याँ टूटने की एक झंकरित अनुपम ध्वनि ! फिर बादलों की ओट से एक अनुपम रंग बिरंगा प्रकाश बिखरा और पूरे देश में फैल गया। वही हमारी स्वतन्त्रता की भोर का अनुपम प्रकाश !
हाँ स्वतंत्रता की भोर का प्रकाश !
पृथ्वी का शुभ्र आलोक देखकर अम्बर मन्द मन्द मुस्कान छोड़ रहा था। कितना अहोभाग्य है उसका, आज उसके कलेजे मे ऐसे नक्षत्र का उदय हो रहा है। जो चालीस करोड़ अभागांे का सुख सन्देश है ! पागल हुआ जा रहा था वह नभ !.......और पागल हुई थी पतिवियोग में एक पहाड़ सी वेदना लिये करुणा। उसके अन्तः स्थल की करुणा में आज गुदगुदी उठ रही थी। उसके उत्पीडि़त हृदय को आज प्यार से सहला कर कोई कह रहा था भोली ! तेरे पति के समान ही नवयुवकांे के खून की यह सुखद झाँकी है। देख ले तेरे प्रीतम का प्रेरणात्मक विद्रोह, आज सफलता की चरम सीमा पर किलकारियाँ मार रहा है। वातावरण को देख कितना उल्लसित है।
करुणा उस पत्र को बार-बार पढ़ रही थी। जिसमें सरकार की विज्ञप्ति छपी थी ‘सन् बयालिस एवं इसके पूर्व राष्ट्र सेवार्थ बन्दी, समस्त विद्रोही स्वतन्त्रता की खुशी में मुक्त किये जायेंगे।’ देश के कोने-कोने में रहने वाले व्यक्तियों ने वह विज्ञप्ति पढ़ी सुनी किसी का बेटा, किसी का भाई, किसी का पति.......सब रिहा होंगे । कितनी प्रसन्नता का दिवस आ रहा है।
करुणा अपने उस टूटे फूटे घर की सफाई कर रही थी। जिस घर से स्वतन्त्रता के लिये लड़ने वाला वीर सेनानी पति लोहे की कठोर हथकडि़यों के बीच घसीटता ले जाया गया था...........कितना भयानक था दिन.........जब.........
यशवन्त !
पुलिस की कर्कश ध्वनि गूँजी थी।
यशवन्त अपनी पत्नी से विदा ले रहा था। उसे मालूम था। उसका विद्रोह शासन की नजर में अराजकता का कितना अक्षम्य कांड है ! सम्राट के साम्राज्य के प्रति कितना बड़ा अपराध है।
यशवंत ने सोते युवकों को स्वतन्त्रता का मूल्य बताकर ललकारा ! कायरों में देशभक्ति की शक्ति फूँकी ! और फिर सामूहिक रूप से एक तूफान मचा दिया, एक विशाल ज्वार... उसकी गोली की घड़घड़ाहट में न जाने कितने देश शत्रु सो गये थे। उसकी बज्र सी मुष्ठिका ने न जाने कितने पिशाचों को लुढ़का दिया था। उन अंग्रेज शासकों को, जिन्होंने उसकी माँ बहिनों पर अमानुषिक अत्याचार किये थे, धधकते अग्नि कुण्ड मे ईंधन के समान फेंक दिया था। कितने भयानक थे, वे दृश्य ! देशद्रोहियों की चीत्कार करती हुई वे पुकारें ! और प्रलयंकर शंकर सी मचली क्रांतिकारी यशवन्त की वह टोली !! मूली की तरह काट रहे थे, वे सब ........उसके फड़फड़ाते हाथों ने उन अंग्रेजों की छाती पर चढ़कर रुधिर पान किया था। हनुमान सा वह आकाश मंे उड़कर प्रतिद्वन्दियों के आवागमन के कई सूचक यन्त्र काटे...............मानवता की छाती को ‘छक छक’करती हुई, रौंधती और चीरती हुई उन रेल की पटरियों को जिसमें उसके ही भाई बन्धु माँ बहिनों का सतीत्व चूसा जा रहा था.........मूली सी उखाड़ फेंकी । बंगले आफिस लंका से जला दिये। कम विद्रोह था क्या यह ?
आज उसका भाई ही पुलिस बनकर उसे गिरफ्तार करने आया है।
कैसा विचित्र है संसार !
पर यशवन्त के हृदय में तृणमात्र भी विषाद नहीं था। और वह हँसकर कह रहा है। ‘रानी मेरे विद्रोह की गर्जना शुत्रओं के कानों ने सुन ली है। मेरा यह विद्रोह उनके हृदय का पर्वताकार शूल है, मुझे विदा कर दो रानी। हँसता हुआ जाने दो मुझे... मुझे खुशी हो रही है कि मैं आज देश के अनेक शत्रुओं को सुलाकर हथकडि़यों में तुमसे बिदा लेकर जाऊँगा।
‘नाथ’ फूट पड़ी वेदना... रो पड़ी करुणा।
‘रानी’ !! गरज पड़ा वह, ‘वीर पत्नी होकर रोती हो तुम ? अपनी कायरता और बुजदिली दिखाती हो ! शर्म नहीं आती तुम्हें !! मेरी ओर देखो रानी !! अपने पति की ओर !!! बेडि़यों को देखकर भी वह कैसा खिलखिलाकर हँस रहा था ?
पर आँसू न रुके बहते रहे ...छल छल छल छल... ‘रानी फिर भी यदि तुम्हारी आँखों ने आँसू न रोके तो मैं नाराज हो जाऊँगा। तेरा कायर विलाप मेरे मार्ग का रोडा़ नहीं बन सकता’।
करुणा फिर भी न मानी, छल छल छल छल .....
फिर हवा में उठी उसकी क्रूर चौड़ी हथेली जा पड़ी ‘चट्टाक’! करुणा के फूल से कोमल गालों पर, चीख पड़ी वेदना से वह। उछल आया था, गाल पर पाँचों अंगुलियों का पंजा।
दूसरे ही क्षण करुणा के गालों पर एक कृत्रिम मुस्कान थिरक उठी। पानी-पानी हो गया यशवन्त का वह क्रोध ....‘मैं पागल हो गया था रानी क्षमा कर मुझे.....’
‘आपने उचित ही किया स्वामी’रुंधी, दबी आवाज में बोली वह। ‘मुझ जैसी गँवारिन को यदि आप लातों से कुचलते तो भी......
‘रानी’
‘हाँ स्वामी .....आपके पवित्र चरणों की सौगध.......मेरे हृदय में तृणमात्र भी दुख नहीं। मैं जिन्दा रहूँगी.....प्रतीक्षा करूँगी आपकी.......जाओ... जाओ मेरे स्वामी’!!
‘सच ! सच रानी ?
‘हाँ, प्राण।’
और बाहर हो गया यशवन्त उसी क्षण। बेडि़याँ खनक पड़ीं। वह हँसता रहा....आजादी का दीवाना है, उसके गीत गाता रहा।
दरवाजे पर खड़ी करुणा की डबडबाई आँखें देख रही थीं.....उसका सुहाग बेडि़यांे में घसिटता जा रहा था। दूर......क्रमशः दूर।
कल उसका पति छूटेगा।
करुणा की नस-नस में आज उन्माद छलक रहा था। पति वियोग के पाँच साल कितनी यातनाओं से काटे थे उसने। मजदूरी की, श्रीमानों की लातें-बातें सहीं लेकिन नारीत्व का अस्तित्व न मिटने दिया। वह अपने पति से जीवित रहने का वायदा जो कर चुकी थी। वह जीवित रही, उस पति के लिए जिसके क्रूर विद्रोह का प्रतिफल-आज खुशी की किलकारियाँ से सारा नभ मंडल गूँज रहा था।
पन्द्रह अगस्त सन् उन्नीस सौ सैतालीस
भारत का कोना-कोना दुलहन सा सजा। करुणा रात को सोयी न थी। उसके विकल हृदय ने उसे सोने न दिया था। पल-पल गिनते सबेरा हुआ और वह वियोगिन सी चल पड़ी।
अपने पति के स्वागत के लिए।
वह उन चरणों में गिर पड़ेगी। उन चरणों को आज वह गंगा जल से नहीं, प्रेमाश्रुओं से धोयेगी। कितना आनन्द आयेगा तब। इतना.....इतना कि बता न सका उसका हृदय।
जेल का विशाल फाटक ! वह खड़ी थी टकटकी बाँधे !!
जेल का फाटक खुला कैदी निकलने लगे। मैले कुचैले कपड़ों में, दुबले-पतले दाढ़ी बढ़ी हुई। चेहरों को पहिचान रही थी, वह पर वे ?
‘वे’ कहाँ हैं ? अभी तक नहीं निकले। विकलता बढ़ती गयी। पर उसके ‘वे’ न दिखे उसे।
दिल चूर चूर हो गया। डबडबा आयीं आँखें। कहाँ गये वे ?
प्रसन्नता से नाचती आयी थी, निराश वह लौट चली, अगम वेदना लेकर...गिरती...लड़खडाती।
यह कौन !
दुबला-पतला, बडे़-बडे़ बालों वाला.. उसकी परछी में.....तो क्या ...उसके.....हाँ, वही !
‘स्वामी’!!
हर्ष से नाच उठी वह। दौड़ी... गिर पड़ी पैरों पर।
‘रानी मेरी रानी’ यशवन्त ने उठाकर चिपका लिया छाती से। वर्षों की बिछुड़ी करुणा की करुणा फूट पड़ी। ‘सम्भाल न सकी, रो पड़ी फफक फफक कर’।
यशवन्त छाती से चिपकाये आवाक् खड़ा था। दोंनो धड़कनें एक हो रही थी।
आजादी मिली.....
विदेशी शोषकों से मुक्ति हुई ....
देशी शोषक सक्रिय हो उठे। जनता का खून चूसने के लिए। आजादी है, अपना राज्य है। कौन क्या कह सकता है? लूट मची फिर गरीब जनता हाहाकार कर उठी।
यशवन्त का क्रांतिकारी हृदय..........पुनः विद्रोह के लिए छटपटा उठा। उसने गरीब शोषित जनता के राज्य की स्थापना सोची थी, पर निकला इसके विपरीत। दिन प्रतिदिन गरीब ज्यादा गरीब और अमीर और अधिक अमीर। यह कैसा स्वराज्य ? गरीब रोटी के टुकड़ों को तरसे।
वातावरण पुकार उठा।
अब वह खून चूसने वाले शोषकों और भ्रष्टाचारियों का नाश करने निकलेगा। अभी इसी वक्त... काली रात... सांय सांय करता वातावरण... करुणा सो रही थी। निश्चिन्त प्रसन्न मुद्रा में.... अंग्रजो की छाती में धंसने वाला छुरा फिर निकाला। गर्व से देखा यशवन्त ने खौल उठा गरम खून.... भुजाएँ फड़की और वह निकल गया आंधी सा।
मनुष्य सोचता कुछ है। होता कुछ और यशवन्त के पैर स्टेशन की ओर बढ़ रहे थे कि अचानक काली रात की छाती को चीरती एक क्रुद्ध ध्वनि गूँज उठी।
‘कौन’?
यशवन्त न रुका। बढ़ता गया। ‘बोलता नहीं, कहाँ बढ़ा जाता है ? तीर की तरह आया वह व्यक्ति यशवन्त के सामने टार्च जलायी और अट्टहास कर उठा वह’अच्छा तू.....’
धांय !! धांय !! धांय !!
तीन गोली लगी यशवन्त की छाती में चीखकर गिर पड़ा वह धरती पर। खून के फब्वारे छूटने लगे। यशवन्त वहीं ढेर हो गया।
साम्प्रदायिकता ने चाट लिया था उसे।
अभागिन करुणा इस ज्वालामुखी की लपटों से न बच सकी। प्रेम जलकर खाक हो गया। वह पागल हो गयी।
स्वतंत्रता की याद दिलाने वाला वह महापर्व फिर आ रहा है.....फिर आ रहा है वह महापर्व.....। जिन्होने गरीबों का गला घोंटा है और गुलामी काल मे विदेशी शासकों के कदम से कदम मिला कर चले। उन सबके लिए दुःख शोक, लज्जा का दिवस है किन्तु उन सभी के लिए जिन्होंने स्वतंत्रता की उपासना की, उनके लिए आनंद उल्लास का महापर्व।
परन्तु उस करुणा के लिए ? जिसका सुहाग विदेशियों ने नहीं अपने ही देश के लोगों ने छीन लिया। वह फटे चिथे कपड़ों में रोती, कलपती, चिल्लाती पागलों सी पुकार उठाती है “स्वतन्त्रते तू आ रही है......आ स्वागत है। लेकिन याद रख मेरे सुहाग को भी साथ लाना। भूलना नहीं ? पर उसे क्या उसका सुहाग मिला ?......”
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’