वर्चस्व
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
आज जज वर्मा साहब की अदालत भीड़़ से खचाखच भरी है। इनमें ज्यादातर लोग, रोज अदालत आकर तमाशा देखने वाले हैं और कुछ प्रभावित व्यक्तियों के हमदर्द। इनमें उनके नजदीकी सम्बन्धी भी हैं। अदालत में भीड़ इसलिये थी कि आज एक विवाद के फैसले की तारीख थी।
विवाद क्या था ? गली के मुहाने पर सार्वजनिक नल लगा है। उसमें वहाँ के लोग रोज ही पच्चीसों खाली बरतन भरते हैं, मगर क्रम से। नम्बर एक से तेरह तक जब से नल स्थापित हुआ तब से यह क्रम बना लिया है। कालान्तर में उसी क्रम नें स्थायित्वता का रूप धारण कर लिया। ठीक उसी तरह जैसे कि संसार में विधि सम्मत नियम के अलावा अपनी सुविधा सुभीते के लिए नियम गढ़ लिये जाते हैं। फिर वही चलते जाते हैं, चलते जायेंगे।
‘जन्म सिद्ध अधिकार’ की शायद आज यही परिभाषा है। इसमें हस्तक्षेप या किसी भी तरह की फेरबदल को एक चुनौती मानी जाने लगी है। कभी कभी इन चुनौती के परिणाम बड़े गम्भीर होते हैं। अतः कौन अपना सिर फुटौवल करे ? जो चल रहा, वही ठीक है। सभी इसी में अपनी भलाई समझते हैं। शायद इसी से इस क्रम में स्थायित्व आ जाता है।
एक दिन। स्थापित नियम विरूद्ध कार्य हुआ। नल से जीवन रस प्रवाहित होने में कुछ विलंब था। इसलिये प्रतीक्षारत् थे, खाली बरतन और उन्हें भरने वाले। नम्बर तेरह वाला उन्नीस वर्षीय युवक कमल बोला, नंबर एक के केदार से- “केदार भैया, मुझे माँं के साथ डाक्टर के यहाँ जाना है। सो आज कृपा करोगे ?” वह पहले उसको पानी भरने की कृपा नहीं कर सका।
“मुझे भी काम है .....”तपाक से केदार ने प्रतिवाद किया। “पर भैया, मेरा काम ज्यादा जरूरी है।” कमल ने पुनः आग्रह किया। “होगा मुझे क्या..?” नम्बर एक के केदार के संस्कार अक्खड़ थे। उनमें नम्रता की कोई गुंजाइश नहीं थी। सो पत्थर की लकीर। एक दफा खिंची खिच गयी। कमल ने भी हार न मानी।
भैया, तुमसे सच कह रहा हूँ। कहो तो माँं की कमस खा लूँ ...।
“कसमें झूठे लोग खाते है।” सत्यता पर यह सीधा प्रहार था। और सत्यता को जब कोई झुठलाता है तो सहनशीलता में भी गजब की शक्ति जागृत हो उठती है। भले ही वह क्षणिक हो। उस प्रहार से कमल में वह शक्ति जाग गयी।
‘‘केदार ! आज मैं पानी पहिले भरूँगा।’’ कमल ने यह कहकर नल पर केदार की लगी बाल्टी हटा दी और अपनी लगा दी। केदार भी कैसे हार मानता ? उम्र में उससे एक साल बडा था और बाहुबल भी कुछ ज्यादा। उसने गुस्सा में तमतमाते हुए कमल की बाल्टी दूर फेंक दी।
प्रारम्भिक विवाद यह था। बाद में जिसने उग्र रूप धारण कर लिया। बीच बचाव करने वाले दो निर्दोष मारे गये। एक कमल की चौदह साल की बहन मालती दूसरी अन्य क्रम का सोलह साल का श्याम। विवाद में दोनों के घर के अन्य सदस्य भी फँँसे। पर छूट गये। अदालत द्वारा आज उन्हीं दो किशोरों के जुर्म का फैसला सुनाना था। प्रत्यक्षदर्शियों की गवाही के अनुसार ही फैसले होते हैं। सो अदालत द्वारा दोनों को बीस-बीस साल की सजा सुनाई। हालाकि कमल फैसले के बाद भी चिल्लाता रहा। वह बेकसूर है। मुहल्ले के दो शांतिप्रिय व्यक्ति भी वहाँ थे। वे फैसले से निराश थे।
एक ने कहा- “भाई साहिब, ऐसे छोटे-छोटे विवादों से बचने के भी कोई रास्ते तो होंगे ?”
दूसरे ने कहा- “रास्ता तो हम सभी के दिलों में होते हैं। बस पहल का साहस भर कर सकें।”
दोनों को हुई सजा सुन, सभी दुखी थे। कमल की माँं का रुदन और भी मार्मिक था क्योंकि वही उसके बुढ़ापे का सहारा था।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’