वार्ड नम्बर पांच
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
अस्पताल की चहल-पहल समाप्त हो गयी थी। रात्रि के बारह बनजे वाले थे। बाहर चारों ओर मद्धिम रोशनी बिल्कुल नीरस सी जान पड़ रही थी। अस्पताल के अंदर भी निस्तब्ध मौन वातावरण के बीच में कभी-कभी कराह व दर्द भरी चीख उभर कर गूँज उठती थी।
भव्य अस्पताल के एक किनारे बना तिमंजला वार्ड जो छः भागों में बटा था। नीचे के दो वार्डों में महिलाएँ और ऊपर के चार पुरूष वार्डों में पंखे अपनी पूरे रफतार के साथ घूम रहे थे।
वार्ड नम्बर पांच
कांँच केबिन के अंदर बैठी स्टिर ने एक नजर चारों ओर दौड़ाई। सबको साते हुए देख सुख संतोष की सांस ली और मरीजों के दैनिक पंजी भरने में व्यस्त हो गयी। तभी मौन वातावरण भंग हुआ- हलो सिस्टर सब ठीक है न ।
सिस्टर ने सिर उठाकर देखा-बल्लू था।- हाँ बल्लू.... । अभी बेड नम्बर छै दर्द से चीख रहा था, उसे दर्द का इंजेक्शन दे दिया है।बेड नं. तेईस को नींद नहीं आ रही थी,तो उसे नींद की गोली दे दी है।
बल्लू पूरे वार्ड के मरीजों के पास से गुजरने लगा मानो वह डाक्टर हो। सिस्टर उसे देख रही थी। सोच रही थी, यह कैसा निःस्वार्थी है, जो दिन में नौकरी करता है,और रात्रि में गरीब मरीजों के दुख दर्द बांटने आ जाता हे। अवश्य इसके अंदर कोई गहरा जख्म होगा। एक पीड़ा होगी ।
सिस्टर वह पन्द्रह नम्बर का पलंग खाली है? बल्लू ने प्रश्न किया।
हाँ बल्लू वह एक्सपायर हो गया। सिस्टर ने कहा ।
सिस्टर इन अस्पताल के हर पलंगों में कितनी सुखान्त और दुखान्त कहानियाँ छिपी होती हैं। कितने स्वस्थ होकर अपने घर जाते हैं और कितने इनमें ही अपना दम तोड़ देते हैं। उनके दुख दर्दाें की एक नई कहानी सुनने... और उनके जख्मों को भरने....
बल्लू की भावुकता से नर्स भली भांति परिचित थी। तभी उसकी बातों में एक बे्रक सा लगा । सीढ़ियों से आ रही कदमों की आवाजों की ओर उनका ध्यान गया।
थोड़ी ही देर बाद वार्ड ब्वाय स्ट्रेचर में एक मरीच को लिए चले आ रहे थे। पीछे डा. के साथ साथ एक फटे पुराने कपड़े पहिने एक आदमी भी था। वार्ड में प्रवेश करते ही नर्सव बल्लू भी सक्रिय हो गये थे। डा. सुरेन्द्र ने उस आदमी से प्रश्न किया।
इसका क्या नाम है?
नरेन्द्र
और तुम्हारा
धरमू, साहब ....।
कहाँ रहते हो ?
साब, उस नीली छतरी के नीचे या फिर जहाँ जगह मिल जाती है वहाँ। अभी हम लोग काफी दिनों से अस्पताल के सामने स्कूल के गलियारे में रहते हैं।
यह तुम्हारा कौन है ?
कोई सगा श्तिा नहीं। साथ रहते रहते जान पहिचान हो गयी । मैं तो अपढ़ हूँ साहब। यह हम सभी को शाम को रोज पान की दुकान से लेकर अखबार की खबरें सुनाता था। साहब यह हम लोगों को कभी कभी अपने दिल का दर्द सुनाकर हल्का हो जाता था।
वार्ड ब्वाय ने मरीज को पन्द्रह नम्बर के खाली पलंग पर लिटा दिया । सिस्टर अपनी ड्रेसिंग ट्रे जिसमें दवाईयाँ भी बड़े सलीके से रखीं हुईं थीं, लेकर आ गयी । डा. ने बेहोश पड़े नरेन्द्र के हाथ की नब्ज पकड़ कर देखा फिर स्टेथोस्कोप कानों से लगाते हुए पूछा-
धरमू .... इसे किसी ने जहर तो नहीं दिया? या खाने में कुछ....
नहीं डा. साहब.... । जहर कौन देगा इसे , इसकी किसी से दुश्मनी नहीं थी । खाने के बारे में साहब मुझे मालूम नहीं । मैं एक हफते बाद आज ही सुबह आया था। देखा इसकी तबियत खराब थी । बहुत समझाया पर यहाँ आने को तैयार ही न था। रात में तबियत ज्यादा खराब हो गयी । बेहोशी में इसे उठा लाया हूँ ।
डा. ने नर्स की ओर देखा और कहा- अच्छा सिस्टर कम आन, कुविक आक्सीजन एंड ग्लूकोस ....।
यस, डाक्टर....।
धरमू कभी डा. को देखता, कभी सिस्टर के हाथ में उस इंजेक्शन को । जो निर्जीव पड़े नरेन्द्र के शरीर में एक के बाद एक चुभ कर भी उसमें कोई हलचल पैदा नहीं कर पा रहा था ।
चिन्ताग्रस्त धरमू धीरे से बोला - डा. साहब यह बच जाएगा ना......?
कुछ कहना अभी जल्द बाजी होगी । कोशिश करना हमारा काम है । प्रयास करेंगे । शरीर में कुछ बचा नहीं है । अस्थिपंजर सा रह गया है यह शरीर ।पूरा शरीर नीला और काला पड़ गया है। लाने में काफी देर कर दी । डा. साहब दूसरा इंजेक्शन लगाकर बोले ।
सिस्टर इसका ब्लडग्रुप चैक कर लेना ।शायद आवश्यकता पड़े ।
यश सर सिस्टर ने कहा ।
अचानक एक नर्स दौड़ती हुई आयी बोली - सर, वार्ड नम्बर तीन में सीरियस केस आया है । जल्दी चलिए सर ....।
सिस्टर तुम चलो ... मैं अभी आता हँू फिर मुड़कर बोले । आप लोग इसका ध्यान रखिए कोई परेसानी हो तो बुला लेना । कह कर चले गये ।
रविवार का दिन था। धरमू नरेन्द्र के बिस्तर के पास खड़ा उसे निहारे जा रहा था । दुखी आंखें आँसू बहा रहीं थीं । गुजरे अतीत में झाँक क रवह सामने पड़े वर्तमान के लिए व्याकुल और चिंतित था ।
बल्लू ने उसे दूर से देखा । पास आकर कंधे पर हाथ रखकर कहा- मेरे भाई चिन्ता क्यों करता है भगवान ने चाहा तो सब ठीक हो जाएगा। लगता है, इससे बड़ी आत्मीयता थी ।
हाँ साहब कुछ रिश्ते ऐसे ही बनजाया करते हैं जो खून के रिश्ते से भी बढ़कर हो जाया करते हैं । यह मेरा भाई से भी बढ़कर हो गया था । एक सच्चा दोस्त था .... कहते कहते धरमू का गला भर आचया ।
बल्लू ने दो स्टूल को खिसकाया ।धरमू को बैठने का इशारा किया और दूसरे में स्वयं बैठ गया ।कहा सचमुच तुम्हारी बातों में दम है । और एक सच्चाई भी । अच्छा धरमू यह शादी शुदा है ?
हाँ साहब साथ में दो बच्चे भी हैं इसके । दो साल पहिले यह इस शहर नौकरी के लिए आया था । जो कमाता वह अपने घर भेज देता । घर वाले समझते हैं कहीं अच्छी नौकरी करता है। पर उन्हें क्या मालूम ।कभी इसे काम मिलता तो कभी खाली बैठे रहता । फिर इस शहर में कभी बंद और हड़ताल हुई तो ... भगवान ही मालिक है । और मालूम है साहब ....? धरमू ने जिज्ञासा पैदा करते हुए प्रश्न किया । क्या बल्लू बोला ?
यह पैसे के अभाव में दो साल से घर ही नहीं गया ।मैंने कई बार कहा - जा बीवी बच्चों से मिल आ । पैसे मुझसे ले ले ।बाद में वापिस कर देना । पर मना कर देता जैसे इसने अपने सारे मोह बंधन घर वालों से तोड़ दिए हों ।
पर साहब मोह बंधन ऐसे ही थोड़े ही टूटते हैं। कुछ दिनों से बीबी बच्चों की यादों ने फिर इसे मजबूर कर दिया।इस दीवाली में घर जाने की बातें करने लगा । पर खाली हाथ कैसे जाता। कपड़े-लत्ते, मिठाई-फटाके खरीदने की बातंे करता रहता।
फिर...? बल्लू ने उत्सुकता बढ़ाते हुए प्रश्न किया।
रात दिन मेहनत मजदूरी की फिराक में रहने लगा। जीवन में कभी इतनी मेहनत तो की नहीं सो बीमार पड़ने लगा । मैंने समझाया अरे तू दोस्त से कर्जा नहीं लेता तो चल दूसरे से दिलवा देता हूँ। तो भड़क उठता ।
क्यों ..? बल्लू ने पूंछा
साहब इसके माँ बाप के पास एक छोटा सा खेत और मकान था। उनकी सारी आशाएँ इसी पर टिकीं थीं । सभी कहते तेरा इकलौता बेटा है, इसे शहर भेज कर खूब पढ़ाना लिखाना, अफसर बनाना, तुझे यह कार में घुमाएगा।
बस इसका बाप इसी सपनों की दुनियाँ में खोये रहने लगा। इसे पढ़ाने शहर भेज दिया। खुद बैलों की भांति अपने खेतों में जुट गया था। दुर्भाग्य से दो साल सूखा पड़ गया। खाने पीने के लाले पड़ने लगे ।किन्तु सपनों की दुनियाँ में खोया इंसान .... बस सपने ही देखता है।अपने बेटे को बड़ा आदमी बनाने के चक्कर में खुद छोटा बनता गया।घर खेत साहूकार के यहाँ गिरवी रखकर पैसे भेजता रहा।इस बात की बेटे को भी भनक न होने दी।
पढ़ लिखकर ज बवह गांव लौटा तो माँ बाप को बेटे के जवान होने की चिंता सताने लगी। कर्जाें की खेपों से शादी की खुशियाँ मनाई जाने लगीं।फिर घर में बधाईयाँ गाई जाने लगीं। जब पैसों के अभाव में माँ चल बसी। तब कर्ज का रहस्य खुला। तब इसे अपने पैरों के तले की जमीन खिसकती नजर आयी।
साहब, यह यहाँ-वहाँ काम धंधे की तलाश में भटकता रहा। कभी जगह का अभाव,कभी आरक्षण की मार तो कभी प्रतिस्पर्धा की यह अंतहीन थकावटी दौड़ से थक कर चकनाचूर हो गया ।ऐसे ही समय में एक दिन बा पके मरने की खबर मिली। घर पहुँचा,जब यह घर से पिता की अर्थी निकाल रहा था तब दरवाजे पर साहूकार खड़े थे ।जैसे तैसे घर खेत,जेवर बेचकर कर्जा चुकाया । बीबी बच्चों को अपने चाचा के यहाँ के यहाँ एक कमरे में छोड़कर फिर जीवन संग्राम में संघर्ष करने इस शहर में आ गया।
यहाँ इसे ठिकाने की नौकरी तो नहीं मिली हाथ ठेला अवश्य मिला। इतना पढ़ा लिखा और रात दिन यह काम यही बात इसके दिल को चोट करती रही। यही चोट उसके दिल में नासूर पैदा कर गयी। बीवी बच्चों से दूर,दीवाली में घर से बुलावा आया। खाली हाथ त्यौहार में भला कैसे घर जाता।पेट काट कर पैसा बचाने लगा। और काम करने लगा।
एक बार एक साहब के यहाँ रंग रोगन का काम कर रहा था साहब का लड़का छत से गिर गया। उसे हास्पिटल ले गये ।खून की जरूरत हुई,इसका खून उससे मेल खा गया।उनके लड़के की जान बच गयी। साहब बड़े खुश हुये। इसके लाख मना करने के बावजूद साहब ने बदले में एक हजार रूपए जेब में डाल दिए। इसे एक नए रोजगार की राह नजर आई। अब यह अस्पताल के इर्द गिर्द रहता और जरूरत मंदों को खून बेचकर पैसा जोड़ने लगा। एक ओर काम का बोझ और दूसरी शरीर से खून बेच बेचना । खून बेचने के इस धंधे में.......
बल्लू ने चैंक कर प्रश्न किया- खून बेचने का धंधा...?
हाँ साहब अस्पतालों में हमेशा खून की कमी होती ही है। बनेक गरीब लोग पैसों के लालच में अक्सर अपना खून बेचते आपको मिल जाएँगे। इसी बात पर मेरा इससे झगड़ा भी हो जाया करता था । मेरे से चोरी छिपे जाकर खून बेच आया करता था। बाजार से बीवी बच्चों के लिए कपड़े साड़ी भी ले आया था । घर जाने की तैयारी भी कर ली थी । इसी बीच मैं भी एक हफते अपने घर चला गया था जब लौट कर आया तो इसे इस हाल में पाया और इसे यहाँ ले आया। साहब, यह अच्छा हो जाएगा न .....
बल्लू ने कहा -जरूर अच्छा हो जाएगा ।
ग्लूकोस की बाटल नरेन्द्र के हाथ में लगीं थीं जिससे उसके निर्जीव बेजान शरीर में कुछ हलचल सी होने लगी थी। उसके होठों से बुदबुदाहट प्रस्फुटित हो रही थी ।
धरमू और बल्लू दोनों प्रसन्न थे । भगवान को लाख लाख धन्यवाद दे रहे थे।
रात्रि के बारह बजने वाले थे।बल्लू दीवाल से स्टूल सटाए बैठा झपकी ले रहा था। घरमू पलंग के पास सिर टिकाए फर्श पर बैठे उनींदी कर रहा था। वातावरण में एक अजीब सी शांति थी। बगल के पलंग पर लेटा मरीज अचानक दर्द से कराहने लगा। दोनों की नींद उचट गयी देखा।
नरेन्द्र के शरीर में एक अजीब सी हरकत हो रही थी । आँखें फटीफटी सी बाहर निकलने को बैचेन थीं। वह लगातार हिचकियाँ ले रहा था ।
धरमू ने सिस्टर को आवाज दी.... उसके मुंह से बहते फसूकर को कपड़े से पौंछा।
बल्लू भागकर डाक्टर को बुलाने गया। जब डाक्टर को साथ लाया तो देखा -
सिस्टर नरेन्द्र की लाश को सफेद चादर से ढक रही थी। धरमू उसके सीने में सिर पटक पटककर रो रहा था। यह देख बल्लू आवाक् रह गया। वह चिरनिद्रा में सोए उसकी लाश को अपलक देखे जा रहा था। कोस रहा था, समाज और देश की उन विसंगतियों को जिसकी वजह से इस अभागे को अपने शरीर का खून बेचने को मजबूर होना पड़ा और आज भी इस तरह से न जाने कितने लोग खून बेचने को मजबूर हो रहे हैं ।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित नर्मदा ज्योति 1974)