यह कैसा उपहार ?...
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
शीला ने माथे में उभर आई पसीने की बूँदों को पोंछा। एक बार सामने रखे ढेर सारे बरतनों की ओर दृष्टिपात किया फिर साड़ी का एक छोर अपनी कमर में खोंसकर उन बरतनों को साफ करने में लग गई। बरामदे से आ रही मिसेज कपूर की कर्कश तेज आवाज अभी भी उसके कानों में गूँज रही थी -
-”शीला तू कब तक बरतनों को अच्छे से माँजना सीख पाएगी ?आज मैं कहे देती हूँ, ध्यान रहे ...आज एक भी दाग नहीं होना चाहिए ... सूखे कपड़े से पोंछकर इनको ठीक से जमा कर रख देना। हे भगवान ... कैसी बेकार सी नौकरानी इस घर को मिली है , साठ वर्ष की हो गई , पर ठीक से बर्तन माँजना भी नहीं आता। लगता है अब कोई नई नौकरानी रखनी पड़ेगी ... “उसकी आवाज में एक चेतावनी भी थी और आदेश भी।
तभी बाहर के दरवाजे पर लगी घंटी घनघना उठी। मिसेज कपूर के चहरे पर मुस्कराहट थिरक गई और दरवाजे को खोलने के लिए चली गई।
शीला अपने कार्य में लग गई। वह पाँच सालों से मिसेज कपूर के यहाँ नौकरानी का कार्य कर रही थी। प्रायः उसे रोज ही फटकार सुनने को मिलती थी। मिसेज कपूर का स्वभाव ही था डाँटना और चिल्लाना। धन का गुरूर जो था। वह कर भी क्या सकती थी ? उसके भाग्य में शायद यही सब कुछ भोगना लिखा था। कपूर साहब तो नगर के पहुँचे हुए नेता थे। समाज में मान-सम्मान, विशेष अधिकार और कानून का संरक्षण सभी कुछ तो प्राप्त था। शीला यह भी जानती थी कि इनके हाथ भी उन्हीं लोगों के समान रंगे हुए हैं। जो रिश्वत,भ्रष्टाचार में ही अटूट विश्वास रखते हैं। तभी तो यह आलीशान एयरकूल्ड बंगला, कारें आदि सभी विलासिता की सामग्रियाँ भरी पड़ीं हैं।
शीला ने पुनः गॅूंजे को उठाया और वर्तन चमकाने में लग गई। चमकाने की धुन में वह इतना खो गई कि अचानक थाली की कोर से उँगली कट गई। मुख से एक दर्द मिश्रित कराह निकल पड़ी साथ ही खून की एक धारा भी फूट पड़ी। किन्तु आज उसकी आह कराह सुनने वाला इस दुनियाँ में कोई नहीं था। किंकर्तव्यविमूढ सी बैठी अपलक अपनी अंगुली से रिसते हुए खून को देखे जा रही थी। वह अतीत की यादों में डूबती चली जा रही थी।
उसे वह दृश्य याद आ रहा था ....जब एक दिन सब्जी काटते समय उसकी उँगली कट गई थी। अभी उसके मुख से उफ निकला ही था कि कवीन्द्र दौड़ पड़ा था। कवीन्द्र कितना प्यार करता था। कितना चिंतित हो उठा था। मलहम पट्टी चटपट कर डाली थी। अपने प्रति इतनी आत्मीयता और प्रेम देखकर, वह अपने दर्द का भूल गई थी। उसके मुख पर मुस्कान थिरक उठी थी। और कवीन्द्र उसकी मुस्कराहट देख झंुझला रहा था।
“शीला मैंने तुमसे कितनी बार कहा - एक नौकर रख लो। मुझे अच्छा नहीं लगता कि तुम दिन रात काम ही करती रहो। कितनी बार समझाया किन्तु तुम मानती ही नहीं। शायद तुम भूल गयी हो कि तुम एक धनवान बाप की इकलौती बेटी हो और मैं एक ब्रिटिश सरकार का वफादार पुलिस अफसर। जिसका ढेर सारा मान सम्मान और बड़ी अच्छी तनख्वाह है। फिर तुम्हें चिंता किस बात की है। मेरे दोस्त मुझे बड़ा कंजूस समझते रहते हैं। “
अचानक शीला के हाथ की थाली जमीन पर गिरकर झनझना उठी। जिससे उसका अतीत उस शोर से बिछुड़कर छिन्न भिन्न हो गया। झनझनाती थाली को उठाया तो उसमें उसे अपना मुखड़ा दिखा। जिसमें अब केवल झुर्रियाँ ही शेष रह गयीं थीं। और वह उदासी और चिंताओं के गहरे समुद्र में डूबकर और वृद्ध होती जा रही थी।
तभी कपूर साहब के कमरे से घंटी की आवाज सुनाई दी। जाकर देखा तो कपूर साहब अपनी पत्नी पर झल्ला कर बड़बड़ाए जा रहे थे - अरे देखो तो सुंदर को अभी बीमार पड़ना था। अगर जरा भाषण लिखकर बिस्तर पकड़ता तो उस बेवकूफ का क्या बिगड़ जाता। अब कल पन्द्रह अगस्त की सभा में मैं क्या बोलूंगा ?
शीला को सामने देखा तो कपूर साहब ने कहा - “अरे भाई, एक कप काॅफी पिला दे। क्या मुसीबत आई है ?”
कपूर साहब को शीला ने जल्द ही एक कप काॅफी बनाकर दी। और सभी कामों से छुटकारा पाकर शाम को अपने घर की ओर चल पड़ी।
थकी हारी शीला, अपनी कोठरी में आते ही सीधे बिस्तर पर लेट गई। उसने सोने का बहुत उपक्रम किया किंतु आज नींद तो मानों कोसों दूर भाग गयी थी। करवट बदली तो देखा कि दीवार पर लगी फोटो हवा के तेज झोंकों से कील पर झूलने लगी थी। वह उठी और उसे यथावत स्थिर कर एकाग्रचित्त होकर निहारने लगी।। कवीन्द्र का चित्र था , जो अब इस दुनियाँ में नहीं था। कितना मोहक सजीव चित्र था। उसे ऐसा लगा मानों दरवाजे पर खड़ा वह दोनों बाहों को फैलाए आगोश में भरने के लिए बुला रहा है। विस्मृत स्मृतियाँ सजीव होकर चलचित्र की भांति एक एक कर उसके सामने गुजरने लगीं।....
जब वह अपने जीवन का इक्कीसवाँ बसंत पार कर रही थी। सौंदर्यता की सुंदर प्रतिमूर्ति थी। वह अपने मामा के घर गई थी। उसने दरवाजे के अंदर कदम रखा ही था कि सामने बैठे हुए उस युवक को देखा जो गौर से उसकी ओर देखे जा रहा था। दोनों की आँखें एक दूसरे से मिलीं।। तभी मामा जी आ गए। मामा जी दोनों का परिचय करवाया।
कवीन्द्र पच्चीस वर्षीय सुंदर सुशिक्षित युवक था। परिचय के बाद दोनों में धीरे-धीरे प्रगाढ़ता बढ़ी। वह शीला की झील जैसी आँखों में उतरता ही गया। दोनों में अटूट प्रेम हो गया और वही प्रेम एक दिन शादी में परिणित हो गया।
अभी वैवाहिक जीवन के पाँच साल बीत ही पाए थे कि देश में चारों ओर तूफान उठ खड़ा हुआ। एक ऐसा तूफान जिसमें सभी बह रहे थे। फिर भला कवीन्द्र कैसे बच सकता था। अचानक एक दिन कवीन्द्र ने कहा -”शीला, मैंने नौकरी छोड़ दी है।”
शीला आश्चर्य चकित हो पूँछ ही बैठी -” आखिर क्यों ? “
“शीला , मैं भी भारतीय हॅूं। अब मुझे भी अंग्रेजों की यह गुलामी की चादर अच्छी नहीं लगती। मैं अपने ही भाईयों पर अब और अत्याचार और जुल्म होते नहीं देख सकता। असहाय, बेबस और अमानवीयता से तृषित अपने देशवासियों से अब और आँखें मिलाने की हिम्मत मुझमें नहीं है। मैंने भी प्रतिज्ञा की है कि मैं परतंत्रता में पड़े कराहते सिसकते भारतीयों के आँसूओं को पोंछूँगा। शीला हमें अब इस गुलामी की बेड़ियों को तोड़ना ही होगा। शीला, क्या तुम मेरा साथ दोगी ? बोलो शीला ....क्या साथ दोगी ?...
भारत माँ की लौह जंजीरों को तोड़ने की प्रतिज्ञा कर कूद पड़ा। उस स्वतंत्रता संग्राम में जिसमें पहले से ही असंख्य सपूत हृदय में आजादी की अखंड ज्योति जलाए कमर कस कर बढ़े चले जा रहे थे। बढ़ते हुए सैलाब में जब कवीन्द्र क्रांति का शंखनाद कर रहा था। न जाने कितने नराधम पाश्विक विदेशी आताताईयों को अपने रिवाल्वर का निशाना बना चुका था। कितने अंग्रेजों को मौत की गोद में सुला चुका था। उसे किसी बात की चिंता नहीं थी। बस चिंता थी तो केवल गुलामी से मुक्ति की और भारत माँ को आजाद कराने की।
शीला वह दिन आज तक न भुला पायी थी जब कवीन्द्र काफी दिनों बाद लुकता छिपाता उससे मिलने आया था। और आते ही उसने अपने विशाल हृदय में समेट लिया था। महीनों बाद आया था। आँखों में आँसू भर कर बोला - “शीला तुम नाराज तो नहीं हो मुझे माफ कर देना “
किंतु शीला तो आज उसकी कोई बात ही नहीं सुनना चाह रही थी। वह तो दूर कहीं किन्ही सपनों में खोई आनंद मग्न थी। मौन बस मौन ....
अभी वह प्यार भरे दो शब्द भी न बोल पाई थी कि बूटों की पास आती आवाजों से चैंक गई।
कवीन्द्र ने झट से रिवाल्वर हाथ में लिया। वह जाने को मुड़ा ही था कि शीला की आँखों में आँसू देखकर लौट पड़ा। अपने आगोश में उसे ले लिया और प्यार का चुंबन उपहार में देते हुए खिड़की से बाहर छलांग लगा दी।
वह बेचारी पागल सी मौन देखती रह गयी थी।
अभी वह अपने आप को संभाल ही न पाई थी कि बाहर से ठाँय... ठाँय...की आवाज से चौंक उठी।
एक चीख हवा में लहरा उठी .... उसी चीख के साथ कई अट्हास गूँज उठे।
शीला बदहवास सी भागती हुई लान में आयी। सामने का दृश्य देखा तो स्तब्ध रह गई। और मूर्छित होकर गिर पड़ी। होश आने पर वह उठी और लड़खड़ाते हुए कवीन्द्र के पास जा पहॅुंची। उसके सीने से बहते लहू को अपने काँपते हाथों से रोकने का असफल प्रयास करने लगी।
कवीन्द्र ने कराहते हुए बोलना चाहा किंतु कुछ बोल पाता इसके पूर्व ही शीला को अकेला छोड़कर संसार से अलविदा हो गया।
भारतीय जन मन में सुलगती चिंगारियों ने दावानल की भांति ज्वाला का रूप धारण कर लिया। उस शुभ्र नव प्रभात के लिए जन मन व्यग्र था। सभी अपना सब कुछ लुटा देने को तत्पर थे। नर नारी बूढ़े बच्चे सभी अंग्रेजो भारत छोड़ो के गगन भेदी नारों से चारों दिशाओं को कंपा रहे थे। हजारों की संख्या में भारत माँ की वीर ललनाएँ भी हाथों में तिरंगे झंडे लहरातीं नारे लगातीं निर्भय चल रहीं थीं। उसी भीड़ में सबसे आगे श्वेत परिधान धारण किए, चेहरे में अटल विश्वास, अटूट देशभक्ति लिए-, शीला भी अपने तिरंगे झंडे को मजबूत हाथों में थामे बढ़ी जा रही थी। .....
खिड़की से आती सूर्योदय की किरणों ने उसकी स्मृतियों को छिन्न-भिन्न कर दिया। चैंक उठी। दिन काफी चढ़ आया था। कपूर साहब जाग गए होंगे और मिसेज कपूर ने तो पूरा घर आसमान पर उठा रखा होगा। जल्द ही तैयार होकर थकी हारी उदास चल पड़ी। वे स्मृतियाँ आज भी उसके हृदय में हलचल मचा रहीं थी। वह सोच रही थी कि क्या यही सुराज की कल्पना थी। जिसकी खातिर हमने कुर्बानियाँ दी थीं। भारत की आजादी का उसे यह कैसा उपहार मिला ? यह कैसा सुराज है ...?
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित नवीन दुनिया 1972)