यह कैसा बदलाव?
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
किसी जमाने में जब जमींदारी एवं मालगुजारी प्रथा थी। तब इनमें भी दो विचार धाराएँ थी एक शोषक तो दूसरा जनता का हितैषी। मेरेे अपने जीवन के सत्तर दशक पूर्व जन हितैषी के रूप में एक नाम आज भी मेरे मस्तिष्क में अंकित है। एक ब्यौहार राजेन्द्र सिंह जो अनेक गाँवों के स्वामी थे। उनकी जमींदारी का क्षेत्र काफी विशाल था। उनके पूर्वजों के इतिहास को तो मैं नहीं जानता किन्तु राजेन्द्र सिंह के बारे में मैनें काफी पढ़ा सुना एवं देखा। आजादी के संग्राम का काल था। पढ़े लिखे थे और साहित्य के प्रति लगाव था। देशभक्ति, देश प्रेम के प्रति जज्बा था। उस समय उन्होंने उस विचारधारा के प्रवाह में स्वयं को समर्पित कर दिया था। आचार्य बिनावा भावे के भू दान आंदोलन से जुड़ गये थे, तो स्वाभाविक था उन्होंने अपने गाँव के गाँव दान कर दिये। उन्हें इससे काफी ख्याति भी मिली। अपने जीवकोपार्जन के लिए कुछ एकड़ खेत बचा रखे थे। एक बड़ा मकान था जिसमें कई किरायेदार बसा लिए थे। कुछ कमरे अपने निवास के लिए और एक कमरे में स्वयं का प्रेस था, जिसमें वह अपने साहित्य का प्रकाशन कर समाज में चेतना लाने एवं अपने विचारों से उसे जगाने में लगे रहते थे। ऐसे जमींदार और मालगुजार भी उस काल में थे। जिन्होंने समय काल परिस्थितियों में अपने को ढाल कर बदल डाला था। जन सेवा का बीड़ा उठाकर समाज सेवा कार्य में अपने आप को समर्पित कर दिया था।
उसी तरह हमारे मोहल्ले में एक मालगुजार थे। एक मालगुजार का बाड़ा कहलाता था। जिसमें मकान विहीन कई गरीब किराएदार रहते थे जो सभी एक परिवार की तरह हिल मिल कर रहते। मेरे पिता जी उनके बारे में बतलाते थे। काफी सज्जन पुरूष थे। उनको लकवा लग गया था तो वे बेचारे पुराने जमाने में हाथ से चलने वाले तांगे में बैठ कर जहाँ जाना होता था वहाँ घूम आते थे। इस तरह लागों से मिल लेते थे। उनकी काफी जमीनें थीं। बचपन में मैने उनको देखा था। मेरे मन में भी उनकी कुछ छवि अंकित थी। मालगुजार थे तो वे अपने बड़प्प्न के खातिर सदैव जागरूक भी रहते थे, तभी तो उन्होंने कुछ अपनी जमीनों को दान में दे दिया था व कुछ सामाजिक सरोकार वाले भवनों का निर्माण भी करवाया।
उस जमाने में शिक्षा से ज्यादा शारीरिक स्वास्थ्य पर ज्यादा जोर दिया जाता था सो उन्होंने अपने क्षेत्र के बच्चों के लिए एक दो अखाड़ों का निर्माण कराया। उस क्षेत्र में मालगुजार के अखाड़े के नाम से जाना जाने लगा। एक बड़े हाल के साथ एक दो कमरे भी थे। उसके ऊपरी हिस्से में एक शिलालेख भी लगा था ताकि वह सार्वजनिक रहे और समाज के हर वर्ग उससे लाभान्वित होते रहें। आजादी के बाद समाज में शिक्षा और स्वस्थ शरीर के प्रति जागरण अभियान चला। हमारे जैसे अनेक अपने बचपन के दिनों में स्कूलों में पढ़ने के अलावा उस अखाड़े में स्वास्थ्य के खतिर दंड पेलने, व्यायाम करने के लिए जाने लगे थे। उस क्षेत्र के जन बच्चे लगोंट पहिन कर जाने लगे। काफी युवा भी आते मिलजुलकर अखाड़े की मिट्टी को गोड़ते और व्यायाम कर शरीर को तंदुरूस्त बनाते। प्रतिवर्ष नागपंचमी को उस अखाड़े के सभी लोग मिलजुल कर अपने व्यायामों और वहाँ पर प्रशिक्षित करतबों का सड़कों पर प्रदर्शन करते। जिसे देख सभी लोग सराहते और पुरस्कृत करते।
शहर में ऐसे अनेक अखाड़े थे। उनका अपना महत्व था। पहलवानी के साथ -साथ अनेक साहसिक करतब दिखाने व सीखने की होड़ मची रहती। स्कूलों में भी नागपंचमी में कुश्ती प्रतियोगिताएँ आयोजित होती थीं। नागपंचमी व अनेक त्यौहारों में हर अखाड़े के लड़के अपने-अपने उस्ताजों के मार्गदर्शन में सड़कों में जलूस बनाकर निकलते अपनी लाठी भांजना, मुकदर घुमाना, तलवार वाजी मलखंब व आत्मबचाव के अनेक कला कौशल का प्रदर्शन करते। जलूस जिस सड़क से गुजरता उसके दोनों ओर भारी भीड़ हर अखाड़े के प्रदर्शनों को बड़े मनोयोग से देखती और ताली बजाती। अंत में अखाड़ांे के सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन पर नगर की एक कमेटी उन्हें विजेता घोषित कर ट्राफी देती। इस तरह उनका उत्साह वर्धन किया जाता। इस तरह समाज का हर वर्ग अपने आप को अखाड़ों से जोड़े रखता था और अपने उस्तादों के संरक्षण एवं मार्गदर्शन में कुश्ती के हर दाँव पंेच को सीखता एवं अच्छी तरह से परांगत हाने की कोशिश करता ताकि अगले वर्ष उनको ही प्रथम पुरस्कार प्राप्त हो सके।
समय ने करवट बदला। अब शरीर को स्वस्थ रखने के लिए जिमों ने स्थान ले लिया। जिम जगह-जगह पर खुल गये। उसमें आधुनिक मशीनें लग गईं। शारीरिक स्वास्थ्य ने व्यवसायिकता में कदम बढ़ा लिये। अब वे अखाड़े धीरे- धीरे अपना स्वरूप बदलने लगे। कभी वे निवास में बदले तो कभी कब्जाधारियों ने सूने पड़े अखाड़ांे को अपने व्यक्तिगत स्वार्थ में उपयोग करना शुरू कर दिया। इन सब अनैतिक कार्यों में आज के नेताओं और समाजसुधारकों ने बड़ा योगदान दिया।
आधुनिक राजनैतिक नेताओं एवं सामाजिक ठेकेदारों ने पहले तो अपना आधिपत्य जमा लिया। अखाड़े की माटी को बाहर फेंक कर उस पर फर्श डाल दिया गया। उस दानदाता के शिलालेख को उखाड़ कर अपने पूर्वजों के नाम से नाम पट्किा लगा दी गई। ताकि आने वाली पीढ़ी उनकी व्यक्तिगत जागीर समझे। उनका उपकार माने उन्हें ही दानदाता के रूप में जाने। अर्थात उस जमाने के परमार्थ को व्यक्तिगत स्वार्थ में बदलने का षड़यंत्र रचा गया। समाज के स्वनामधन्य कर्णधार एवं राजनीति के दादाओं ने उस पुरानी पीढ़ी के समाज के प्रति त्याग भाव की अनदेखी कर दी। अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के उपयोग में हथियाने में जुट गये।
एक वह पीढ़ी थी और एक यह पीढ़ी हैं। यह कैसा बदलाव है, जो परमार्थ के लिए कुछ करना तो दूर है। ऊपर से उन पुण्यात्माओं के शिलालेख को हटाकर उस जगह पर अपने पूर्वजों के शिलालेख लगाकर सम्पत्ति को हथियाने में लगे हुए हैं। इस तरह वे उस इतिहास को भी झुठलाने में लगे हैं। इससे क्या उन्हें कोई यश मिलेगा ? क्या कोई सियार इस तरह से शेर बन सकता है। शायद वे नहीं जानते कि झूठ ज्यादा समय तक नहीं चलता...
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”