अनोखा बलिदान
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
मनोज कुमार शुक्ल 'मनोज'
पूर्व दिशा से भुवन भास्करदेव अपने रथ में आरूढ़ हो, सम्पूर्ण जगत को प्रकाश देने के लिए पदार्पण कर चुके थे। उनके आलौकिक प्रकाश से सम्पूर्ण भूमण्डल रक्तावरण में नहा उठा था, चारों ओर गुलाबी सा रंग बिखर गया था। पक्षियों ने चहचहाना शुरू कर दिया । उपवन के किनारे लगे मुरझाये पौधे में अधखिली कली ने एक ऐसी अनूठी अंगड़ाई ली कि भास्कर भी रथ से उतरकर अपने नेत्रों से अपलक निहारने में लीन हो गया।
घर में भारी धूमधाम मची थी, चारों दिशाएँ खुशी से पागल हुईं जा रहीं थीं। आज भास्कर के आनंद की सीमा नहीं थी। वह भाग दौड़ कर कार्य करने में मग्न था। घर के सभी लोग व्यस्त नजर आ रहे थे, किसी को भी दम मारने की फुरसत नहीं थी। चारों ओर घर और शादी का मंडप तोरण से सजाया गया था।
शाम को सात बजने वाले थे। चाँदनी आकाश में छिटकी हुई थी। उस अ}तीय सौन्दर्य को देखकर चाँद भी अपनी मधुर मुस्कान चाँदनी पर फेंककर दिल जीतने का प्रयास कर रहा था। आकाश की चाँदनी की ही तरह भास्कर का मकान भी असंख्य बल्व की रोशनी से नहाया हुआ था। नए परिधानों में सजधज कर नए नए मेहमान आ रहे थे ।उसके घर बारात आने वाली थी। आज भास्कर की बहिन की शादी होने वाली थी ।
उसके मकान के सामने एक आटो रिक्शा रुका । उसमे से कुछ नए मेहमान उतर रहे थे। जिन्हें देख उसके बढ़ते कदम रुक गये। वह उस मनमोहक रूप को अविरल निहारने लगा। उस आगुन्तिका की नजर भी मानों किसी की तलाश कर रहीं थीं। अतिथि के स्वागत करने को माँ आ गयी थी। वह अपने काम में फिर से व्यस्त हो गया।
बारात लग चुकी थी।बारातियों के स्वागत सत्कार और स्वादिष्ट व्यंजन खिलाने के बाद उन्हें जनवासा दिया जा रहा था। भास्कर की बेचैनी बढ़ती जा रही थी ।वह जब भी किसी काम के लिए घर के अंदर आता तो उसका रूप निहार कर सोच में पड़ जाता। उसे कुछ धुंधली याद आती और मिट जाती। वह परिचय के लिए बेताब था कि मौसी की आवाज आई- अरे सुशीला तू, कब आई । माँ जी कहाँ हैं ? दिखाई नहीं दी ?
“आंटी जी उनकी तबियत खराब थी इसलिए नहीं आ सकीं। पिताजी की बदली भी इसी शहर में होने वाली है अब तब ही आना संम्भव होगा।
बेटी तुम्हारी तो पढ़ाई चल रही होगी ?
जी हाँ, फस्ट ईयर में हूँ।
और इधर भास्कर ओट में खड़ा खड़ा उसका परिचय पा चुका था। वह अपनी स्मरण शक्ति पर जोर डाल रहा था। सुशीला... सुशीला... अरे यह तो वही सुशीला है, जिसके साथ बचपन में खेला करता था। कितनी शरारती थी । जरा जरा सी बात पर झगड़ पड़ती थी। भास्कर के सामने वह बचपन की गुजरी बातें सजीव हो उठीं थीं। जब खेलते खेलते उससे एक खिलौने को लेकर झगड़ा हो गया था। तो उसने भास्कर के हाथ में पत्थर फेंककर मारा था। गहरी चोट से कराह उठा था, और काफी देर तक वह रोया था। आज भी उसका निशान उसके हाथ में बना था। भास्कर अपने हाथ को सहलाने लगा। उसे सहसा हँसी आ गयी। उस मार को वह आज तक नहीं भूला है।
अंततः उसने वह खिलौना उससे छीन ही लिया था। बहती खून की धारा देखकर वह सहम गयी थी। तब कहीं जाकर उसने उस पर अपना अधिकार छोडा़ था। जो आज तक यादगार के रूप में उसकी काँच की आलमारी में रखा है। तभी पिता जी की अंदर से आवाज आई और वह मुस्कराते हुए अंदर चला गया।
जब वह पुनः कमरे में आया तो देखा कि सुशीला उस खिलौने की ओर अपलक निहारे जा रही थी। उसने उसे उठाने के लिए अभी हाथ बढ़ाया ही था कि -यह अब आपको कभी नहीं मिलेगा, यह मेरा है। आवाज गूँजी ...सुशीला घबड़ा सी गई, चोंक कर देखा तो सामने भास्कर को मुस्कराते हुए पाया।
यह खिलौना आपका है ? तब तो आप मुझसे नहीं जीत पाएँगे । दोनों की हँसी कमरे में गूँज गयी । दोनों बचपन की गुजरी बाते याद कर खूब हँसे .... ।
अच्छा तो तुम फस्टईयर में पढ़ रही हो । कब आ रही हो फिर से झगड़ा करने जबलपुर।
जी तुमको कैसे मालूम हुआ, ओह...अब समझी तो आप छिप छिपकर बातें सुन रहे थे। मैंने तो पहली नजर में तुम्हें पहिचान लिया था कि तुम वही पिटियल भास्कर हो। मुझे एक बात समझ में नहीं आई कि यह लम्बे लम्बे बाल क्या साहित्यकारों सरीखे बढ़ा रखे हैं ?
हाँ तुमने सही पहिचाना, संवेदनशील हूँ न, भावनाओं की दुनियाँ में भी विचरण करता रहता हँू तो दृकहानी, कविता थोड़ा बहुत लिख लेता हॅूं ।
अच्छा तो वाकई कहानी लिखते हैं। प्रेम कहानी तो जरूर लिखते होंगे?
प्रेम कहानी ! जी नहीं... किन्तु जब आप आ जायेंगी तो वह भी लिखना शुरू कर दूँगा ।
बहिन की शादी सम्पन्न हो गयी थी। बारातियों की बिदा हो गयी थी। मेहमानों की वापसी भी एक एक कर होती गई। उसी तरह सुशीला भी बिदा लेकर अपने शहर जा चुकी थी ।
सुशीला के पिता का दो माह के बाद इसी शहर में ट्रान्सफर हो गया था। वह अपने माता पिता के साथ इसी शहर में आकर रहने लगी थी । सुशीला को जबलपुर के गल्र्स कालेज में एडमीशन मिल चुका था ।
सुशीला यौवन की देहलीज मैं कदम रख चुकी थी। बड़ी ही खूबसूरत थी। चेहरे में सदा ही मुस्कराहट मचलती रहती। जब हँसती तो कपोलों की लालिमा और बढ़ जाती। गाल के बीच की गहराई किसी सुंदर झील की तरह दिखाई पड़ती थी। उसके सुन्दर गुलाबी अधर, गुलाब की पंखुड़ियों के समान दिखते। उन अधरों को देखकर युवा दिल थाम कर रह जाते। उसके आँखों में हमेशा चंचलता अठखेलियां लेती रहती। जब वह लाल कसीदाकारी की हुई आसमानी रंग की सलवार कुर्ती पहिनती तो ऐसा लगता कि उसकी छवि को जीवन भर निहारते रहें। बचपन के बिछुड़े साथी जवानी में मिले तो दोनों के दिल एक दूसरे से घुल मिल गये थे।
समय गुजरते देर नहीं लगती । अपनी कालेज की पढ़ाई भी दोनों की पूरी हो चुकी थी। आपस में दोनों के अटूट प्यार को देखकर माँ बाप ने दोनों को वैवाहिक बंधनों में बांधने का विचार भी बना लिया था। जल्द ही दोनों की मंगनी की रश्म अदायगी का विचार भी बन गया। भास्कर के पिता के इस शर्त के साथ कि भास्कर की नौकरी लगते ही दोनों की शादी भी हो जाये तो अच्छा है। एक तरह से बात भी सही थी। पर लड़की की शादी की प्रतीक्षा का भी कोई समय तो होता है। उसके माँ बाप कब तक प्रतीक्षा करते।
नौकरी के इंतजार करते करते एक बार भास्कर के पिता की अचानक सड़क हादसे में मौत हो गयी। अब तो उसके ऊपर दो भाईयों और माँ को सम्हालने की जुम्मेदारी आ पड़ी थी। भास्कर जिसने दो वर्ष पूर्व एम.ए. किया था, बड़ा ही सुंदर सुशील योग्य लड़का था। किन्तु बेरोजगारी का दिल में ऐसा काँटा चुभ गया था, जो अब नासूर बनता जा रहा था। वह दिन रात सोचता रहता अपने भविष्य के बारे में। उसके जीवन में यह एक ऐसा घुन लग गया था, जिसका केवल कोई रोजगार पा लेने से ही उपचार संम्भव था। उसके चेहरे की आभा लुप्त होती जा रही थी ।
सुशीला ही उसके दर्द को समझती थी। सुशीला से मन की बात कर उसके अशांत मन को शांति मिल जाती थी। दिन भर दौड़ धूप करने पर भी नौकरी कहीं नहीं मिल पा रही थी। फाईलें भर चुकी थीं एप्लीकेशन देते देते। ऐसा नहीं कि उसमें योग्यता की कमी थी उसने इंटरव्यूह भी कई जगह दिये। नौकरी की न्युक्ति का इंतजार ही करता रहा। आज के भाई भतीजावाद, भ्रष्टाचार से भरे इस देश में नौकरी पाना कितना दुरूह था, केवल बेरोजगार युवक ही समझ सकता था।
भंवरताल उद्यान में अशोक के घने वृक्ष की छाँव के नीचे भास्कर लेटा था। उसने कलाई घड़ी की ओर नजर डालकर देखा सुशीला अभी तक नहीं आई। मन बड़ा उद्विग्न हो उठा। अस्ताचल की ओर जाते भुवन भास्कर का तेज प्रकाश भास्कर पर पड़ रहा था। जिसे वह सहन नहीं कर पा रहा था। वह पुनः वृक्ष की छाया की ओर खिसक गया। सोचने लगा कि मैं कैसा अभागा हूँ जो अपने बेचारे भाईयों के लिए दो जून की रोटी भी नहीं जुटा पा रहा हूँ। मैं कितना अभागा हूँ।
भास्कर को याद आ रहा था वह दिन जब पिता जी अस्पताल के बिस्तर में लेटे थे। माता जी उनके नजदीक चिंतित उदास बैठीं थीं। दोनों भाई पलंग के इर्द गिर्द खड़े थे। पिता जी ने कराहते हुए करवट बदली बोले बेटा-लगता है, अब मैं बचूंगा नहीं, मरना तो एक दिन सभी को है। पर मेरी ऐसी मौत होगी सोचा भी नहीं था। बेटे तेरी नौकरी लग जाती तो बहुत ही अच्छा होता। अपनी माँ भाईयों के लिए सहारा हो जाता। और तेरी शादी हो जाती, अपने लगाये गुलशन को लहलहाते हुए देख लेता तो कितना अच्छा होता।
उसके पिता तो मन में यह अभिलाषा लिए इस संसार से सारे रिश्ते नाते तोड़कर चले गए। माता जी को भी उनकी आकस्मिक मृत्यु गवारा नहीं हुई और दो माह बाद ही भास्कर को रोता बिलखता छोड़ मौत की गोद में समा गयी। उसके समान अभागा इस दुनियाँ कौन होगा भला। उसका दिल भर आया। आँखों से आँसू पोंछे और स्वयं मन को बहलाने के लिए रंग बिरंगे फूलों को निहारने लगा।
शाम को छः बज चुके थे, उसने फिर गेट पर नजर डाली किन्तु निराशा हाथ लगी। चहल कदमी करता हुआ चिड़ियाघर के सामने पहुँच गया। जहाँ वन के अनेक प्राणी पिंजड़ों में बंद थे। भीड़ उन्हें देखकर आनंद ले रही थी किन्तु किसी के मन ने उनके हृदय की छटपटाहट व मूक वेदना को नहीं समझा।
तभी पीछे से किसी के खांसने की आवाज आई। सुशीला को नए परिधान में देखा ।
मौन का वातावरण सुशीला ने ही तोड़ा- क्या मैं इस सलवार में अच्छी नहीं लग रही हूँ? नहीं सुशीला तुम तो बहुत ही सुंदर लग रही हो। दोनों ही हरी दूब में बैठ गये ।
सुशीला अगर आज तुम्हारा सहारा न मिला होता तो मैं किस हाल में होता, पता नहीं। मैं जीवन से बहुत निराश हो चुका हूँ। अब मुझसे और नहीं चला जाता। मुझे भय लगता है कि कहीं तुमसे हमेशा के लिए बिछुड़ न जाऊँ ---
सुशीला ने उसका सिर गोद में रखकर बालों को सहलाते हुए कहा कि “ आज भास्कर तुम्हें क्या हो गया है? पढ़े लिखे हो नवजवान हो कर भी ऐसी बाते करते हो ? तुम जमाने से लड़ सकते हो अपने अधिकारों को छीनने की ताकत है तुममें । भास्कर उठो आज तुम्हें हिम्मत से काम लेना है .... इस तरह से जीवन हारना ठीक नहीं । ... जीवन जीने के लिए होता है। संघर्ष करने के लिए होता है। संघर्ष करने का नाम ही जीवन है ...
“हाँ तुम सही कहती हो सुशीला । मेरे अंदर का निस्तेज दीप को आज तुमने जला दिया। अब मैं उस निस्तेज दीप को सूर्य के समान प्रकाशवान कर दूंगा। ताकि भारत में एक ऐसी भोर जिससे किसी गरीब को मेरी तरह न भटकना पड़े। उसे भ्रष्टाचार, भाई भतीजावाद, रिश्वतखोरी, महगाई जैसे विकराल दानव से न उलझना पड़े। मानवता पर फिर यह दानव अपने खूनी दांत न गड़ा सके।”
कई दिन बीत गये थे, गांधी मैदान में धरने उपवास के.....सामने कई बेरोजगार युवक उसका साथ दे रहे थे। भास्कर उठने को उद्यत हुआ, लड़खड़ाते भास्कर को सुशीला ने सम्हाल लिया। उसने एक बार कृतज्ञता से सुशीला को देखा और फिर अपने सामने बैठे उन हजारों युवको को जो पिछले कई दिनों से खुले मैदान में उसका साथ दे रहे थे।
भास्कर उठा कांपते हाथों से राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के चरणों में कुछ पुष्प अर्पित किये और उनकी ओर देख कर बोला -” हे बापू अच्छा हुआ तुम्हें भारत का यह स्वरूप तो नहीं देखना पड़ा। जल्द ही चले गये। बापू तुमने अपनी अहिंसा और उपवास द्वारा विदेशी लुटेरों को तो मार भगाया। पर इन देसी लुटेरों को ... बापू तुमने जिस सर्वोदयी नव प्रभात की मन में कल्पना करके भारत को आजादी दिलवायी थी आज सब तुम्हारे सपने बिखर गये। हे बापू, आज यहाँ भ्रष्टाचार बेरोजगारी, महगाई, जातपांत, उग्रवाद, आतंकवाद का इतना घनघोर धुंध छा गया है कि अब वह तुम्हारे सपनों का भारत कहीं दिखाई ही नहीं देता। यह धुंध भयानक असहनीय और विकराल है। समस्त मानव समाज इसके दंश से आहत है। आज मैंने विवश हो कर तुम्हारे शस्त्र को फिर उठा लिया है। उन सभी बुराईयों के खिलाफ बिगुल बजा दिया है। इस समय ये मेरे साथ असंख्य भाई बहिन हैं। बापू अब मुझे मौत से कोई भय नहीं....”
अचानक लड़खड़ा कर वह गिर पड़ा और पुनः बुदबुदा उठा- “बापू वह दिन दूर नहीं जिस नवप्रभात की कल्पना संजोये संसार से अलविदा हो गये थे। देखो बापू हम सभी आज उसे लाने को फिर से कृत संकल्पित हैं....”
कहते कहते भास्कर को खून की एक जबरजस्त उल्टी हुयी और हमेशा के लिए अपनी भारत माँ की गोद में सो गया। बादलों की ओट से झाँकती बापू की आत्मा कराह उठी और उसके नेत्रों से आँसुओं की धारा बह पृथ्वी पर बरस पड़ी।
माँ बिलख पड़ी देश रो उठा। चारों ओर हाहाकार मच गया। भीड़ अनियंत्रित हो गई। पृथ्वी पर बिखरा खून और उन आँसुओं ने मिलकर देश में एक नई क्रांति का शंखनाद कर दिया।
मनोज कुमार शुक्ल “मनोज”
(प्रकाशित नवीन दुनिया1975)