दिवारों में टँग गए पापा.....
दिवारों में टँग गए पापा,
मुस्काते हैं मम्मी संग।
तन में झुर्री पड़ी दीखतीं,
शिथिल पड़ गए पूरे अंग।
जीवन भर दौड़े हैं दोनों,
कठिन परिश्रम करके जीते।
माला जपते समझौतों की,
रह गए हाथ-जेब रीते।
निश्चिंता में दिखते दोनों,
न करते अब रंग में भंग।
टूटी लरियाँ परिवारों की,
दिखता नहीं है वह गहना।
बेटों ने आजादी चाही,
जपते जाते अलग रहना।
रह-रह कर कानों में गूँजे,
एकाकी का बजे मृदंग।
चलना सीखा उंगली पकड़े,
भूल गए नन्हा बचपन।
बाँह थामने के अवसर पर,
शायद उनसे भर गया मन।
फिर भी उनने हार न मानी,
जैसे चढ़ा रखी हो भंग।
मात-पितृ यादों में बस गए,
नेह भुला न पाए नटखट।
पितर पक्ष में हार चढ़ाना,
तर्पण करना नदी के तट।
गया में जाकर मुक्ति देना,
कर्म-धर्म का छाया रंग।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’