बंधन में जी लिया बहुत ही.....
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
समय जरा तू ठहर अभी तो ,
मन मेरा अब हुआ मगन।
यह तेरा था, यह मेरा है,
करते ही जीवन बीता ।
फँसा रहा उलझन सुलझाने,
केवल हाथ लगी गीता।
स्वार्थों का ही मेला था यह ,
जीवन जी कर किया मनन ।
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
अभिलाषा मन में थी मेरे ,
छूना है अंबर तल को ।
जीवन तो जी लेता मानव,
चाह नापना जल-थल को।
कुछ तो नया करें इस जग में ,
यही हमारी रही लगन ।
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
संघर्षों से राह बनाई,
विचलित नहीं कभी पथ से।
कंटक पथ में चला अनवरत ,
डिगा नहीं वैभव रथ से।
नेक राह पर चला सदा ही,
बना लिया है सुखी-सदन।
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
काट काट कर जंगल सबने,
धाराशाही कर डाला।
पर्यावरण उजाड़ा सबने ,
जल का दोहन कर डाला।
ज्ञान-तत्व की भर लें झोली ,
ऋषि मुनियों का यही कथन।
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
पर फैलाकर उड़ना मुझको,
चाँद सितारों से मिलना ।
प्रकृति-धरा से साक्षात कर ,
संस्कृति का दर्शन करना।
नहीं उलझना मुझको अब है,
बस मेरा तो यही कहन।
बंधन में जी लिया बहुत ही,
उड़ना है उन्मुक्त गगन।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’