बरसो मेघा ठंडक लाओ.....
बरसो मेघा ठंडक लाओ,
धरती की अब तपन मिटाओ।
उजड़ गई वसुधा की गोदी,
उसको फिर से स्वर्ण बनाओ।
धू-धू लपटें दिन भर चलतीं,
जंगल हुए ठूँठ से जड़वत।
झुलस रहे जीवित प्राणी सब,
देखी पीड़ा होती पर्वत।
सूरज प्रतिदिन आग उगलता,
धरती की अब तपस बुझाओ।
बरसो मेघा ठंडक लाओ,
धरती की अब तपन मिटाओ।
कूप बावड़ी ताल-तलैयाँ,
नदियाँ रूठीं अपने तट से।
पनघट सारे उजड़ गए हैं,
दिखते सारे वे मरघट से।
सूखे अधर बाट अब जोहें,
हर प्राणी के सपन सजाओ।
बरसो मेघा ठंडक लाओ,
धरती की अब तपन मिटाओ।
हर्षित करते रहे सभी को,
जब भी छाते रहे गगन में।
आशाओं की बजी दुंदुभी,
नाच उठे थे सभी वतन में।
छलनाओं सी चाल चलो मत,
झड़ी नेह सच में बरसाओ।
बरसो मेघा ठंडक लाओ,
धरती की अब तपन मिटाओ।
अवनि और अंबर हैं प्यासे,
भू गर्भों के घट हैं खाली।
चातक मन आकुल व्याकुल है,
पीड़ाएँ सब तुमने पालीं।
बरस उठो अब मेघा काले
सब पर अपनी तरस दिखाओ।
बरसो मेघा ठंडक लाओ,
धरती की अब तपन मिटाओ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’