मंजिल की क्या करें शिकायत.....
मंजिल की क्या करें शिकायत,
राहें तक दुश्वार रहीं हैं।
दोष मढ़ें दूजों पर क्यों हम,
नाजुक ही पतवार रहीं हैं।
आजादी की बिछी बिछायत,
जनता ने झेले थे डंडे।
भारत को जब मुक्ति मिली तब,
माला पहन खड़े थे पंडे।।
भ्रमित रहे आभा में उनकी,
तलवारें दोधार रहीं हैं।
मंजिल की क्या करें शिकायत
राहें तक दुश्वार रहीं हैं.....
प्रजातंत्र का उदय हुआ जब ,
रामराज के स्वप्न दिखाए ।
राजाओं का युग बदला पर,
उस छाया से उबर न पाए।।
सत्ता के सिंहासन पर ही,
नेताओं की लार बहीं हैं।
मंजिल की क्या करें शिकायत,
राहें तक दुश्वार रहीं हैं।
कैसा सम्मोहन था सबमें,
बस कुर्सी की लोलुपता थी।
लोकतंत्र के बने थे प्रहरी,
वंशवाद की फसल उगी थी ।
बीते सात दशक आजादी,
सारी जनता जाग चुकी है।
मंजिल की क्या करें शिकायत,
राहें तक दुश्वार रहीं हैं.....
मीठे सपने आश्वासन के,
खूब दिखाए हैं नेता ने ।
भरीं तिजोरी घर की अपनी,
सत्ताधीशों सँग चमचों ने।
प्रजातंत्र की परिभाषा अब,
सारी पीढ़ी बाँच गईं हैं
मंजिल की क्या करें शिकायत,
राहें तक दुश्वार रहीं हैं.....
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’