सुचिता की बस बातें होतीं.....
सुचिता की बस बातें होतीं,
छले गए हम नारों में।
हर नुक्कड़ में खड़े ठगी हैं,
लगी भीड़ बाजारों में।
स्वार्थों की दुनिया है देखी,
मित्र बटे दरबारों में....
राजनीति की बिछी बिछायत
शकुनि संग दुर्योधन है।
सब के सब दलबदलू दिखते,
सत्ता का सिंहासन है।
सिद्धांतों को कौन पूँछता,
टाँग रखा दीवारों में....
तन-मन अर्पित किया मित्र को
फिर भी पीठ छुरा घोंपा ।
गिरगिट जैसा रंग चढ़ा था,
जो था पास वही सौंपा।
खुली आँख हम रहे देखते,
नाव बही जल धारों में...
विश्वासों पर चोट लगा कर,
बन बैठे कुछ पंडा हैं।
नदी किनारे भस्म लगाए,
लिए हाथ में डंडा हैं।
पहन मुखौटे बैठ गए अब
सहज सरल परिवारों में....
घिरती कश्ती तूफानों में,
जनता भँवरों में फँसती ।
वोट लूटने बाँटें रबड़ी,
मँहगाई डायन हँसती,
राजनीति के कुशल चितेरे,
खोए हैं उपहारों में....
भ्रष्टाचारी मौज कर रहे,
ता-ता-थैया नृत्य करें।
बैठी कुर्सी आँख मूँदकर,
लाशों का व्यापार करें।
आँसू दुखिया के कब पौंछे,
भुला दिया सत्कारों में....
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’