आत्म प्रशंसा रोग है.....
आत्म प्रशंसा रोग है, छिपा हुआ है दम्भ।
सरवर में जब डूबते, पकड़ न पाते खम्भ।।
प्रशंसा तो संजीवनी, नापें नभ पाताल।
मुरदों में भी प्राण भर, कर देता वाचाल।।
आत्म प्रशंसा से बचें, भरमाएँ मत आप।
मन से मन को तौलिए, कभी न हो संताप।।
मूल्यांकन ऐसे करें, चलें सदा अविराम।
सफल कार्य होते सभी, जग में होता नाम।।
सद्गुण को अपनाइए, दुरगुण को दुत्कार।
तब समाज उत्कृष्ट हो, रामराज्य साकार।।
यह जीने की है कला, अन्दर रखें सहेज।
हर भ्रम जालों से बचें, करें सदा परहेज।।
जीवन में सत्कर्म ही, करता है कल्यान।
इसको जो भी पूजता, उसको मिलता मान।।
ऐसे नर को क्या कहें, जो भरमायें जग।
भरमजाल के टूटते, दुखता है रग-रग।।
आत्म प्रवंचना से बचें, मिलता है अपयश।
विनम्र भाव मन में रखें, स्वयं मिलेगा यश।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’