अंगारों से मत खेलो तुम.....
अंगारों से मत खेलो तुम,
झुलस गए पछताओगे ।
अपने कंधों पर अपनों की,
कितनी लाश उठाओगे ।
जितनी लड़ी लड़ाई तुमने,
हर युद्धों में हार गए ।
अपने हाथों से पैंरों पर,
स्वयं कुल्हाड़ी मार गए ।
काश्मीर के मुद्दे में ही,
कब तक तुम भरमाओगे ।
उग्रवाद, आतंकवाद से,
कब तक तुम डरवाओगे ।
हमने तुम्हें शरीफ समझ कर,
दिल से गले लगाया था ।
बस की राह तुम्हें आने का,
न्यौता भी भिजवाया था ।
किया मित्र विश्वासघात,
नापाक इरादा जान गया ।
तेरी काली करतूतों से,
सारा जग पहचान गया ।
बॅंगला देश के इतिहास को,
क्या फिर से दोहराओगे ?
अपनी नादानी से फिर क्या,
अपनी नाक कटाओगे ?
जनता के श्रम की पूँजी को,
युद्धों में लुटवाओगे ?
द्वेश भाव भर जन-मानस में,
क्या शरीफ कहलाओगे ?
संघर्षों की इस धरती ने,
वीरों का इतिहास गढ़ा है ।
राम, कृष्ण गौतम ,गांधी का,
कण-कण में विश्वास बसा है।
गरम लहू से वीर सिपाही,
जमी बर्फ पिघलाएंगे ।
कारगिल की दुर्गम घाटी में,
राष्ट्र ध्वजा फहराएँगे ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’