बूढ़ा बरगद देखता.....
बूढ़ा बरगद देखता, चौपालों की शाम ।
बदल रही कैसी हवा, जीना हुआ हराम ।।
घर-घर में अब छा रहा, क्षुद्र स्वार्थ का रोग।
विपदा में हैं वृद्ध जन, माँगे मिले न भोग।।
जीवन भर रिश्ते गढ़े, कब आये हैं काम ।
अपने ही मुँह फेरकर, हुये अचानक वाम ।।
धीरे से दिल ने कहा, चल खोजें अब ठौर ।
अपना घर यह है नहीं, यही हवा का दौर ।।
माला गूँथी प्रेम की, सभी रहेंगे साथ ।
सूखे तन को देखकर, सबने खींचे हाथ ।।
आज समझ में आ गया, नहीं किया अहसान ।
इनके ही खातिर जिये, तब हम थे नादान ।।
समाचार के पृष्ठ पर, आँखें करतीं खोज।
कौन हमारा चल दिया, पढ़ें यही अब रोज ।।
सज्जनता है खो रही, कहीं नहीं है ठौर।
जग में बढ़ी कृतघ्नता, यही आज का दौर।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’