धर्म और आतंक का.....
धर्म और आतंक का, कैसा कुत्सित मेल ।
होगा इनका बंद कब, मानवता से खेल ।।
इस्लामिक स्टेट्स के, उग आये नाखून।
इंसानों को मार कर, बहा रहे हैं खून।।
कुरबानी के नाम पर, बच्चों का उपयोग।
शिक्षा से वंचित रखें, पाल रखा हैं रोग।।
जेहादों के नाम पर, गढ़ा नया संसार ।
फतवा देकर मारते, नित करते संहार।।
सारी दुनिया देखती, कैसा चढ़ा जनून।
धर्म मुखोटा पहनकर, बढ़ा रहे नाखून।।
दहशतगर्दी पाल जो, बजा रहे थे बीन।
आज वही डसने खड़े, दशा-दिशा संगीन।।
धर्म मर्म कब जानते, कैसे हैं इन्सान।
इन्सानों के वेष में, ये केवल शैतान।।
बड़ा घिनौना रूप है, नव युग के प्रतिकूल।
सौहार्दी फतवा गढ़ें, समय बने अनुकूल।।
फिरकेबाजी बढ़ रही, जिसका नहीं हिसाब।
विश्व आज है चाहता, इससे मुक्ति जनाब।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’