दो मुँहे अब साँप भी, बढ़ने लगे हैं.....
दो मुँहे अब साँप भी, बढ़ने लगे हैं,
घर गली आँगन में, अब चलने लगे हैं ।
खतरों के सैलाबों से, कैसे बचें हम,
आस्तीनों में भी अब, पलने लगे हैं ।
अब इसे तुम भाग्य या, दुर्भाग्य कह लो,
या सुखों की दल-दली, बरसात कह लो ।
या इसे जीवन का तुम, अवसाद कह लो,
इनके संग रहना हमें, अब सीखना है ।।
जख्मों से अब जख्म, भी बढ़ने लगे हैं ,
अब मर्ज भी बेमर्जी से, बढ़ने लगे हैं ।
जिन्दगी लम्हों की खातिर, हैं परेशां ,
पल सुकूँ की खोज, सब करने लगे हैं ।।
पीने को जब शेष , कुछ भी ना बचा हो,
पी रहें हैं जहर सब, मजबूर होकर ।
कब तलक सूखे अधर, तुम रह सकोगे,
कब तलक जीवन से, यॅूं लड़ते रहोगे ।।
जिंदगी चौराहों में, सबकी खड़ी है,
किस दिशा में जाएँ, यह मुश्किल घड़ी है।
राष्ट्र की तरुणाई भी, अब रो पड़ी है,
रहनुमाई देश की अब, सो गयी है ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’