दूर क्षितिज के पार से है.....
दूर क्षितिज के पार से है,
झाँकता मुखड़ा सलोना ।
दे रहा फिर प्रेम का वह,
गर्म साँसों का बिछौना ।।
उदासियों की साँझ जाने,
किस दिशा में खो गयी ।
कौन सी औषधि न जाने ,
दुखते मन को धो गयी ।।
मुस्कान टेसू ने बिखेरी ,
गुलाब की कलियाँ खिली ।
बेला की खुशबू लजायी ,
रात की रानी खिली ।।
चाँद की फिर चाँदनी है,
छा गयी आकाश में ।
तन दहकने सा लगा है,
इस भरे मधुमास में ।।
फिर शिरायें रक्त की ,
गर्म हो - हो कर मचलती ।
आलिंगनों की चाह में ,
मन की कलियाँ हैं विहंसती ।।
पँख फैलाये परिन्दा ,
नीड़ में फिर आ गया ।
तृप्ति का रसपान करने ,
फिर घरोंदा भा गया ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’