गुलिस्ताँ की हर कली.....
गुलिस्ताँ की हर कली, जब फूल बनती है ।
तब फिजा में नूर की, कायनात बसती है ।
नूर की किलकारियों की, हम कद्र करते हैं ।
हम चमन के बागवां, हिफाजत भी करते हैं ।
फलसफा अखनूर का, हमको नहीं आता ।
सरहदी नफरत बढ़े, यह नहीं भाता ।
दिल की हर गहराई में, हम उतरना चाहते हैं ।
इंसानियत के आईने का, दायरा पहचानते हैं ।
हम दिलों के मेल में, हैं सदा विश्वास रखते ।
दोस्ती का हाथ देकर, दुश्मनी में ना बदलते ।
बस यही एक चाह में, ‘बस’ चली थी हमसफर ।
रेल की छुक-छुक से गॅूंजी, थी यहाँ की हर डगर ।
इस अमन की राह में, यूँ ही चलेगा सिलसिला ।
खुद जियो और जीने दो, इक यही है फलसफा ।
नूर की किलकारियाँ , इतिहास को बनाएँगी ।
आने वाली पीढ़ियाँ भी, नेह में बंध जाएँगी ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’