इस जगत में एक जीवन.....
इस जगत में एक जीवन, मैं भी जीना चाहता हूँ ,
जिंदगी में कुछ अधूरे, पृष्ठ लिखना चाहता हूँ ।
देखता हॅूं सत्ता के अब, सब गलियारे तंग हैं ,
आँखों में पट्टी चढ़ी, और हर दरवाजे बंद हैं ।
स्वार्थ से आकंठ डूबे, हर दिलों में दम्भ है ,
आचरण की लेखनी से, हर सफे बदरंग हैं ।
आजादी की वह चाह जाने, कैसे अनबुझ रह गयी,
देश की रुसवाइयाँ, कानों में कुछ-कुछ कह गयीं ।
क्या यही जीवन की भाषा, अनुच्छेदों में गढ़ी थी?
लोकतंत्री यंत्रणा की, बुनियादें क्या ये रखी थी?
कुर्बानियाँ दी थीं जिन्होंने, उनके सपने ढह गये,
कल्पनाओं के क्षितिज से, सब परिन्दे उड़ गये ।
कितने लोगों की कराहें, और आहें सह सकोगे,
भक्ति सेवा की संदूकें, और कितनी भरते रहोगे ।
विषमताओं की दीवारें, अनगिनत हैं बन गयीं ,
अट्टालिकाएँ शोषकों की, जानें कितनी तन गयीं ।
क्राँति की लेकर मशालें, तोड़ना मैं चाहता हूँ ,
इस प्रलय की हर दिशा को, मोड़ना मैं चाहता हूँ ।
इस जगत में एक जीवन, मैं भी जीना चाहता हूँ ,
जिंदगी में कुछ अधूरे, पृष्ठ लिखना चाहता हूँ ।
इस तिमिर में एक दीपक, मैं भी बनना चाहता हूँ ,
दीप बनकर इस जगत में, आलोक करना चाहता हूँ ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’