जब-जब श्रद्धा विश्वासों पर.....
जब - जब श्रद्धा विश्वासों पर,
अपनों ने प्रतिघात किया ।
तब - तब कोमल मन यह मेरा,
आहत हो बेजार हुआ ।
मैं तो प्रतिक्षण चिंतित रहता,
सुख- सुविधा की छाँव दिलाने ।
मनुहारों की थपकी देकर,
अनुरागों के गीत सुनाने ।
जब -जब नेह भरी सरगम में,
चाहा हिल-मिल राग अलापें ।
तब -तब मेरे मीत रूठ कर,
मेरे दुख में खुशियाँ मापें ।
समझौतों की दीवारों से,
कितने मकां बनाये हमने ।
पल दो पल की खुशियाँ देकर,
लगे वही सब हमको ठगने ।
हर आशा परछाँई बनकर,
खूब दिलासा मुझे दे गई ।
विश्वासों पर चोट लगाकर,
पग-पग आहत मुझे कर गई ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’