कबिरा तुम अच्छे रहे.....
कबिरा तुम अच्छे रहे, जो जन्मे उस काल।
आज अगर होते कहीं, होते बहुत बवाल।।
कविताई सब भूलते, औ प्रवचन का रोग ।
फतवा देकर मारते, आज धरम के लोग।।
बेघर होकर भागते, कहीं न मिलती छाँव।
माटी में जन्मे जहाँ, मिट जाता वह गाँव।।
झीन चदरिया कहन का, नहीं रहा अब जोर।
दुस्साहस जिसने किया, होती कभी न भोर।।
थे सहिष्णुधर्मी मनुज, सुनते थे सब शांत।
दर्पण घर में झाँक के, हो जाते थेे क्लांत।।
बातें सुनकर तब सभी, शर्मिंदा थे लोग।
द्वार तुम्हारे ही खड़े, अपने पन के रोग।।
फिर धर्मों के बीच में, मची हुयी है रार।
निंदक कभी न चाहते, ऐसा है संसार।।
आँगन से कुटिया हटीं, चमचों का दरबार।
ऐसा ही अब चल रहा, यही रहें गुलजार।।
ढाई आखर प्रेम को, कौन पढ़ रहा आज।
ज्ञानी बनकर घूमते, पहने सर पर ताज।।
मक्कारी औ झूठ का, बढ़ा आज है शोर।
आदर्शों की बात का, नहीं रहा अब जोर।।
तुम भारत के संत थे, युग के थे भगवान।
सबके दिल में पुज गये,तब थे सब इन्सान।।
प्रासंगिक हो आज भी, हे भारत के संत।
लोगों के दिल में बसो, करो बैर का अंत।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’