खिड़की से अब झाँकते.....
खिड़की से अब झाँकते, हर बूढ़े माँ बाप ।
गुम सुम से हैं देखते, सूरज का संताप ।।
जीवन भर दौड़े बहुत, नहीं किया विश्राम ।
आया जब संकट समय, उन पर लगा विराम।।
श्वासें अब हैं टूटतीं, रोते नेत्र निचोर ।
नील गगन में डूबती, आशाओं की भोर ।।
विश्वासों की पोटली, नित्य संजाए साथ।
काल परिंदा ले उड़ा, क्षण में किया अनाथ।।
जीवन की संध्या घड़ी, तम घिरता है रोज।
आशाओं के दीप का, किधर करें अब खोज।।
आशा कभी न पालिये, मित्र रहे या खून।
काम पड़ेगा जब कभी, देंगे सपने भून।।
जिन गलियों में खेलकर, बड़े हुये युवराज ।
उन राहों को लाँघ कर, चले गये सरताज ।।
नये क्षितिज पर उड़ गये, बेटा भानु प्रताप।
काट डोर सम्बन्ध कीे, बिछुड़ गये माँ बाप ।।
कभी अपेक्षा न रखें, अपनों से कुछ आप ।
मन दर्पण सा टूट कर, बन जाये अभिशाप।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’