मानव और स्तब्ध प्रतिमा
भ्रष्टाचार
और अराजकता की
नवयुगी रणचण्डी
लपलपाती जिव्हा से
इंसानी लहू चाटती
पैशाचिक नृत्य करती
रक्त रंजित सूर्पनखों से
मानव कंकालों में फँसे
सूखे मांस को
लपकती झपटती
भूखी अग्नि सी
भूख बुझाती
विचर रही ,
और मरघट की
नीरवता लाने
मचल रही ।
बेचारा बेबस मौन मानव
शून्य में खोया
निहारे जा रहा है
लगता है आकाश से
किसी चमत्कार की
प्रतीक्षा कर रहा है
किन्तु मंदिर की
स्तब्ध प्रतिमा
कर्ण विहीन सी
मौन बेजान खड़ी है ।
इस युग के असंख्य
कंसों और रावणों से
कैसे निपटा जाये
यही सोच कर
परेशान हो रही है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’