नदिया रूठी गाँव से.....
नदिया रूठी गाँव से, खड़ी सिसकती नाव।
पनिहारिन गाघर लिये, थका रही है पाँव।।
पनघट सब बेहाल हैं, छाया सूखा रोग।
नदी रेत में खो गयी, ढूँढ़़ रहे हैं लोग।।
कुआँ, बावली रो रहे, पानी के बिन नैन।
ताल तलैयाँ पोखरे, हुये सभी बैचेन।।
हरे भरे जंगल कटे, पंछी खोजें चैन।
कहाँ बसेरा हम करें, व्याकुल उनके बैन।।
बादल सबको छल रहे, उठे हृदय में पीर ।
प्रकृति धरा सब ढूँढ़ते, होकर के आधीर।।
बरखा रूठी द्वार से, सावन भादों माह।
तपता सूरज जल रहा, सबके दिल में दाह।।
धैर्य सभी का खो रहा, दिल में यही मलाल।
प्रकृति हो रही बावली, कैसा है यह साल।।
बरखा रानी रूठकर, छोड़ चली परदेश।
बरस उठीं आँखें सजल, बदला है परिवेश।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’