नव सृजन की कल्पनायें.....
नव सृजन की कल्पनायें ,
फिर विहॅंसती द्वार है ।
बाँह फैलाये जगत यह ,
कर रहा मनुहार है ।
आ गया नव – वर्ष यह ,
निर्माण के नव गीत गाने ।
साधना , संकल्प, दृढ़ता ,
के नए स्वर गुनगुनाने ।
नव क्षितिज निर्माण के ,
सब साज सारे हैं धरे ।
स्वर गुँजाने को ना जाने ,
कबसे हैं आतुर पड़े ।
छेड़ दो बस उॅंगलियों से ,
तार झंकृत हो उठेंगे ।
स्रष्टि - वातायन से सारे ,
मुग्ध ईश्वर हो उठेंगे ।
भाव कलुषित अरू व्यथाएँ ,
ना कभी जीवन में आएँ ।
नैराश्य शोषण की घटाएँ,
फिर ना बदली बन के छाएँ ।
निकलो अब सब ध्वस्त करने,
भेद भावों की जुबानें ।
चल पड़ो अब एकता के ,
इस धरा में स्वर गुँजाने ।
झिलमिलाती उर उमंगें ,
उल्लसित मन आज है ।
वर - वधू की कल्पनाओं ,
सा लगे नव वर्ष है ।
आ गया नव – वर्ष यह ,
निर्माण के नव गीत गाने ।
साधना , संकल्प, दृढ़ता ,
के नए स्वर गुनगुनाने ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’