नीड़ बनाने को उड़ा.....
नीड़ बनाने को उड़ा, इक दिन पँछी भोर ।
लेकर तिनका चोंच में, चला लक्ष्य की ओर ।।
पंख पसारे सुन रहा, वह जंगल का शोर ।
जहाँ प्रकृति की गोद में, नाच रहा था मोर ।।
वृक्षों ने आश्रय दिया, फैला दी निज बाँह ।
यहाँ बसेरा तुम करो, हम सब देंगे छाँह ।।
निर्भय होकर तुम रहो, ऊँची भरो उड़ान ।
मीठे फल खाते रहो, श्रम से नहीं थकान ।।
हरियाली मन मोहती, पशु पक्षी वनराज ।
झरने नदी पहाड़ सँग, छेड़ो अपना साज ।।
कोयल की जब गूँजतीे, मनमोहक आवाज ।
सारा जंगल झूमता, पवन बजाता साज ।।
हर्षित हो कर नाचता, पर फैलाए मोर ।
सबके मन को मोहता, कुहू-कुहू का शोर ।।
हम रक्षक इस विपिन के, पाते जग से मान ।
मिलकर आपस में रह़ें, यही हमारी शान ।।
मिल जुल कर हम सृष्टि का, करते नित श्रंगार ।
त्रिविध पवन गिरि फूल से, भरते कोषागार ।।
सुबह शाम बस छेड़ना, अपनी मधुरिम तान ।
करतल घ्वनि से हम सभी, करते हैं सम्मान ।।
जहाँ प्रकृति सौंदर्य हैं, वहीं बसें भगवान ।
अनुपम छवि को देखकर, नत मस्तक इंसान ।।
वृक्षों की यह बात सुन, पँछी हुआ विभोर ।
नीड़ बनाती डाल में, उठती हृदय हिलोर ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’