नित्य दोहरे आचरण.....
नित्य दोहरे आचरण, जीता है इंसान।
बाहर से भगवान हैं, अंदर से शैतान।।
पहन मुखौटे घूमते, धरे अनेकों रूप।
सारे जग को छल रहे, कैसे बने कुरूप।।
चाल चलन को जानना, समझो मत आसान।
भेद खुले तब जानते, ढग जाता इंसान।।
उस युग में रावण रहा, और रहा था कंस।
त्रेता द्वापर जानता, नहीं रहे वे संत।।
राम और श्रीकृष्ण का, काम रहा आसान।
पर यह कलियुग दौर है, हो कैसे पहचान।।
भक्तों को ही छल रहे, रूप धरे भगवान।
जग को भी भरमा रहे, ईश्वर है हैरान।।
छल छद्मों की ओट में, बढ़ा रखे हैं ठाठ।
नैतिकता आदर्श का, खूब पढ़ाते पाठ।।
सत्ता सुख भी भोगते, तन मन से बेनूर।
धर्म ध्वजा की आड़ ले, बने हुये नासूर।।
पाप न छिपता है कभी, होता पर्दाफास।
तब सबके ही सामने, होता है उपहास।।
बेशर्मी की बेसरम, फैल गयी चहुँ ओर।
कौन उखाड़ेगा इसे, कब होगी शुभ भोर।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’