पत्थर के सीने में उगकर.....
पत्थर के सीने में उगकर,
जो लहराये कविता है ।
कीच भरे दल- दल के ऊपर,
जो खिल जाये कविता है ।
पथरीली ऊसर जमीन को ,
जो हरिया दे कविता है ।
थके राहगीरों को शीतल ,
छाया दे वह कविता है ।
शोषित-पीड़ित जन मानस में,
क्रांति जगा दे वह कविता है ।
घने तिमिर का चीर के सीना ,
जो रख दे वह कविता है ।
जन-मन के दुखते घावों को,
जो सहला दे कविता है ।
काँटों के जो बीच बैठकर,
मुस्काये वह कविता है ।
द्वेष , ईर्ष्या और नफरत को,
जो दफना दे कविता है ।
प्रेम - भाई - चारा फैला दे ,
वही समझिये कविता है ।
गिरे हुये लोगों का सम्बल ,
जो बन जाये कविता है ।
पिछड़ों को गतिवान बना दे,
वही समझ लो कविता है ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’