पत्थर के शहर में अब.....
पत्थर के शहर में अब, दिलदार नहीं मिलते,
खोजो अगर अब तुम, दुश्मन हजार मिलते ।
जब अपने ही पराए, लगने लगे बौराये,
गैरों से नहीं हम तो, अपनो के हैं सताये ।
बेरुखी से अब तो, हैरान हो गया मैं,
अपने ही आशियाँ से, परेशान हो गया मैं ।
अखबारों में हैं छप रहे, किस्से हजार उनके,
बिके- बिके से लग रहे, पन्ने हजार उनके ।
खुद के मकान शीशों के, पर चला रहे हैं पत्थर,
सड़कों में हादसे हैं, हाथों में उठे खंजर ।
इस मुल्क को है क्या हुआ, भगवान ही है रक्षक,
अब सत्ता में भी घुस गये, जहरीले नाग तक्षक ।
कोई सपेरा आकर, चुन - चुन के अब पकड़ ले,
भय मुक्त देश करके, तिरंगे को ऊॅंचा कर दे ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’