पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध.....
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ।
हारों की मुस्कानें सूखकर झरीं,
आशाएँ सपनों के सेज पर सजीं ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
यादों की झोली में दुबिया सौगात,
माटी की खुशबू व फूल की बहार ।
शोषण - गुलामी के गहरे आघात,
आहुति से आया तब देश में सुराज ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
आगत के स्वागत में अभिनन्दन गीत,
पुष्पों की मालाएँ प्रियतम संगीत ।
रोम-रोम पुलकित था आँगन उल्लास,
मन में तरंगों का सुन्दर मधुमास ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
डाल-डाल कोयल की गॅूंजी थी कूक,
अमराई झूमी थी मस्ती में खूब ।
टेसू की मुस्कानें कह गईं संदेश,
आरती की थाल अब सजाओ रे देश ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
मौसम के आँचल में बहुरंगी फूल,
राहों में काँटे और उड़ती है धूल ।
पैरों में शूल चुभे रिसते से घाव,
चेहरे में छाये उदासी के भाव ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
धर्म- जाति - भाषा की उठती दीवार,
उग्रवाद , आतॅंक का छाया गुबार ।
लपटों और घपलों में झुलसा परिवेश,
प्रगति और एकता से भटका है देश ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ......
टूट रहे बाँध सभी ,नदी के उफान,
पुरवाई कहती है, बनके तूफान ।
कैसा ये मौसम है कैसा विहान,
कौन सी दिशा है ये कौन सा जहान ।
पतझर से झरते हैं सारे अनुबंध,
लौट गया देहरी से प्यारा बसंत ........
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’