प्रश्न करती दिख रही बैचेन सी.....
प्रश्न करती दिख रही बैचेन सी,
सदियों से इस खोज में है लेखनी ।
कौन उस गहराई तक जा पाएगा,
जो हथेली में वह मोती लाएगा ।
जिसके आने से महक खलिहान की,
भूख से पीड़ित दबे इन्सान की ।
लाए जो मुरझाए चेहरों में हॅंसी,
ना रहे आँखों में बेवस बेबसी ।
शांति की जो क्राँति लाए देश में,
ज्ञान की गंगा बहे परिवेश में ।
भ्रांतियों के बादलों को जो भगाये,
सूर्य बन कर जो धरा का तम हटाये ।
दाह के दारूण चलन, जो बदल दे,
नफरतों के बीज गर्भों में मसल दे ।
एकता के स्वर गुँजा दे जो गगन में,
प्रेम की धारा बहा दे जो वतन में ।
जो लगाए आग भारत देश में,
उनके हाथों को कुचल कर तोड़ दें ।
जो दिख़ाए आँख भारत की जमीं पर,
उनकी आँखों की पुतलियाँ फोड़ दें ।
इस प्रश्न का हल ढूँढ़ती बैचेन सी,
सदियों से इस खोज में है लेखनी ।
कौन उस गहराई तक जा पाएगा,
जो हथेली में वह मोती लाएगा ।
देश की खुशहालियों में प्राण दे,
जो तिरंगा हाथ में फिर थाम ले ।
ले चलें इस देश को स्वर्णिम युगों में,
गर्व से यह जग हमारा नाम ले ।
प्रगति पथ की सीढ़ियों में जो चढ़ा दे,
साज फिर निर्माण के सारे सजा दे ।
सुप्त प्राणों में मधुर संगीत भर दे,
जो सुरों में चेतना के गीत भर दे ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’