रह-रह के यूँ सताती थी.....
रह - रह के यूँ सताती थी, अहले वतन की चाहत ,
चुपके से कभी सपनों में, दे जाती थी वो आहट ।
आँचल में बीता बचपन, आँगन में गुजरा यौवन ,
गलियों में धींगा- मस्ती, खुशियों में भीगा जीवन।
हमने मकाँ बनाया था, शहरे अदब में अपने ,
हर कोनों को तराशा था, गुरबत भरे दिनों में ।
हम छोड़ कर गये थे, गुलजारे इस चमन को ,
अब लौट कर जो देखा, बदले हुये चमन को ।
अपनों में जी रहा था, अपनों सा प्यार पाकर ,
तनहा सा हो गया मैं, अपनों के बीच आकर ।
अपने ही शहर में अब, अनजान हो गया मैं ,
सपनों के इस महल में, पहचान खो गया मैं ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’