रंगमंच सा लग रहा.....
रंगमंच सा लग रहा, दुनिया का यह मंच ।
कुछ करते हैं साधना, कुछ खल रचें प्रपंच ।।
नाते- रिश्ते झगड़ते, पहुँचाते सन्ताप ।
आस कभी मत पालिये, सपने में भी आप ।।
पाला-पोसा चल दिए, जिगर तोड़कर लाल ।
आशाओं को लूटकर, बना गए कंगाल।।
मीन फँसी जब जाल में, हो जाती है मौत ।
मोह जाल में फँस मनुज, पालें अपनी सौत ।।
मोह सदा गुड़ चासनी, मक्खी सा मँडराय ।
इसमें जो भरमा गया, जीवन भर पछताय।।
बचपन गुजरा खेल में, गई जवानी झूम ।
खड़ा बुढ़ापा मोड़ पर, मौत ले गई चूम ।।
उम्र फिसलती जा रही, ज्यों मुट्ठी से रेत ।
झट तन यह चुक जाएगा, हो जायेगा खेत ।।
जब सुख की बरसात का, दिखे हो रहा अंत ।
दुख को अंगीकार कर, बन जाओ तब संत ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’