राष्ट्रीय सम्मान लौटाने वालों से.....
पढ़े लिखों की भीड़ में, कैसे बैठे लोग।
मान पत्र लौटा रहे, खाकर मोहन भोग।।
दिया देश ने था उन्हें, सोच समझ सम्मान।
हो कृतघ्न लौटा रहे, रखा न उसका मान ।।
भाई भतीजावाद का, लगता था दरबार।
नेताओं की आड़ में, चला खूब व्यापार।।
वर्षों से भ्रष्टाचरण, आतंकों का मेल।
देख रहे धृतराष्ट्र बन, लोग तमाशा-खेल।।
दानवता सदियों हँसी, कभी न उपजा रोष।
लुटिया खुदकी डूबती, तभी दिखा है दोष।।
कैसे समझाएँ इन्हें , खुद को माने श्रेष्ठ।
जनता को मूरख समझ, बने हुये हैं ज्येष्ठ।।
जनमत को झुठला रहे, गाते छलिया राग।
राजनीति से लिप्त है, अधरों का अनुराग।।
वही बुद्धिजीवी असल, जिसके पावन काम।
जिससे दुनिया खुद करे, झुककर उसे प्रणाम।।
तुलसी कबिरा कब रहे, शासन के मोहताज।
उनके लेखन ने किया, कितना दुर्लभ काज।।
सहनशीलता देखिये, धर्म परायण आप।
राम कृष्ण वनवास पर, फिर भी सब चुपचाप।।
राजनीति को छोड़ दो, बदलो यह परिवेश।
तब विकास की राह में, दौड़ पड़ेगा देश।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’