सबसे कठिन बुढ़ापा.....
जीवन जीना कठिन कहें तो,
सबसे कठिन बुढ़ापा ।
हाथ पैर कब लगें काँपनें,
कब छा जाये कुहासा ।
मात-पिता, दादा-दादी सब,
खिड़की ड्योढ़ी झाँकें ।
नाराजी की मिले पंजीरी,
हॅंसी खुशी वे फाँके ।
अपनों से अपनापन पाने,
भरते जब - तब आहें ।
बेटे-नाती, नत-बहुओं से,
सुख के दो पल चाहें ।
नित संध्या की बेला में वे,
डगमग आयें - जायें ।
मन्दिर- चौखट माथा टेकें,
सबकी खैर मनायें ।
वर्तमान के लिए बेचारे,
विगत काल बिसरा दें ।
सोने के पहले ही वे तो,
सबकी भोर सजा दें ।
रूखा- सूखा भोजन करके,
धीमी बानी बोलें ।
देर रात जब नींद न आवे,
यादों के सॅंग होलें ।
जब वे मुखड़ा-उखड़ा देखें,
खुद बैचेन हो जायें ।
बातों को वे घुमा-फिरा के,
मन का दुख पढ़ जायें ।
हर मन को ढाँढस देने में,
सदा रहे हैं आगे ।
घर में उनको देख के विपदा,
उल्टे पैर ही भागे ।
यौवन बाद बुढ़ापा सबको,
निश्चित ही है आना ।
यही सोच कर जीना हम को,
व्यर्थ न पीछे पछताना ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’