संवेदनाओं का स्पर्श
ट्रेन के अन्दर
भारी भीड़ थी ।
किन्तु भीड़ शांत ,
निस्तब्ध-क्षुब्ध थी ।
कोई अपनों से ,
कोई परायों से,
कोई समाज से,
तो कोई सरकार से ।
फिर भी अपनी
मंजिल तक पहुँचने ,
सभी बेचैन – परेशान ।
कहीं कोई शून्य में खोया-
अपने अतीत में डूबा था ।
तो कोई अपलक
निहारे जा रहा था,
लगता है सभी
भूत,भविष्य
और वर्तमान का
लेखा -जोखा
करने में व्यस्त थे ।
तभी इस
बोझिल वातावरण
के बीच एक सूरदास की
आवाज गॅूंजी
पिंजड़े के पंछी रे...
तेरा दर्द न जाने कोय ....
तेरा दर्द न जाने कोय..
बाहर से तू खामोश रहे..
अंदर -अंदर रोए... रे .....
उसके गाने के बोल
सभी के दिलों में
समा रहे थे ।
सबकी संवेदनाओं को मानो स्पर्श कर
दुलार रहे थे ।
उनके दर्द को
मल्हम लगाकर
सहला रहे थे ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’