साथ पिता थे दुख नहीं.....
श्वेत - सुन्दर वसन में, लगें सदा अभिराम ।
धोती कुरता पहन कर, चले सदा अविराम ।।
सूरज की उस धूप में, बदल सका ना रंग ।
जितने छाया में जिये, हुये सभी बदरंग ।।
घर आयें जब अतिथि तब, मन उनका हर्षाय ।
उनके स्वागत के लिए, तन उनका अकुलाय ।।
शिकवा और शिकायतें, सदा सुनें खामोश ।
कभी नहीं उनने किया, अपनों पर आक्रोश ।।
खामोशी जब साधते, चिन्ता बढ़ती गैर ।
उनको चिंतित देखकर, तज देते सब बैर ।।
दुख के बदरा ना घिरें, घर आँगन औ द्वार ।
कर्म-भूमि में थे डटे, अपनी बाँह पसार ।।
यौवन के उन्माद में, थे जो भी बेहोश ।
समझा कर वे राह पर, ले आये खामोश ।।
सबकी चिन्ता है करी, रात दिवस प्रत्येक ।
अपने सब दुख भूलकर, सह दुख कष्ट अनेक ।।
साथ पिता थे दुख नहीं, घर आँगन मुसकाय ।
उनके जाते ही मुझे, घर काटन को धाय ।।
पूज्य पिता ने जो दिये, जीवन में उपदेश ।
शिरोधार्य करमैं चला, मिट गये सकल क्लेश ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’