वतन की आन पर मिटते.....
वतन की आन पर मिटते, वतन की शान पर लड़ते ।
वतन के हर सिपाही को, सदा वंदन-नमन करते ।।
भले प्रतिकूल स्थितियाँ, रहें उनको नही चिंता ।
सिरों पर वे कफन बाँधे, सदा तैयार हैं रहते ।।
हवा का रुख बदल देते हैं, अगर वे ठान लेते हैं ।
नहीं तूफान से डरते, वे मौसम भाँप लेते हैं ।।
समुन्दर की उठी लहरें, कभी विचलित नहीं करतीं ।
वे सागर की तलहटी को, खुशी से नाप देते हैं ।।
समर जब भी बुलाता है, हमेशा दौड़ जाते हैं ।
घरों की मोह ममता को, घरों में छोड़ जाते हैं ।।
उन्हें बस याद रहती है, हमारे देश की माटी ।
जिसे हम मातृभूमि कह, सदा सिर को झुकाते हैं ।।
उठा कर गोद में माँ ने, कभी लोरी सुनाई थी ।
बिठा काँधे पिता ने भी, उसे दुनिया दिखाई थी ।।
लड़कपन में सभी के साथ, मिलकर खेल खेले थे ।
कलाई पर बहिन के हाथ से, राखी बँधाई थी ।।
सवारी करके घोड़ी की, वो डोली घर में लाया था।
रँगा था प्रेम के रंग में, गोद में फूल पाया था।।
खुशी औ दर्द के हर पल, समेटे अपनी झोली में।
इसी माटी में खेला औ, पला जीवन बिताया था।।
दुलारा है बहुत माँ का, पिता की आँख का तारा।
सहारा अपने घर का है, बहन को है बहुत प्यारा ।।
बँधा रिश्तों में वह भी है, हमारे बीच जो होते।
चुकाने फर्ज माटी का, बना सीमा का रखवारा ।।
वो प्रहरी देश का बनकर, खड़ा है आज दिलवाला।
अमन औ शांति के खातिर, लड़े दुश्मन से मतवाला।।
सुरक्षा देश की करने, जगा है रात और दिन में।
तभी सब चैन से रहते, औ गाते हैं मधूशाला ।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’