विहग उड़ें आकाश में.....
विहग उड़ें आकाश में, फैलाकर के पंख।
अकर्मण्य बस बैठ कर, बजा रहे हैं शंख।।
नारी की है अस्मिता, लुटी भरे बाजार।
दीन-हीन असहाय है, कैसा यह संसार।।
मन में उठी तरंग है, होली की हुड़दंग ।
गाल गुलाबी हो उठे, मस्ती में हैं रंग।।
तन मन में अंतर बड़ा, तन सबके है साथ।
मन की तो मत पूछिए, लगता कभी न हाथ ।।
ठाँव कहाँ मन का रहा, जा पहुँचे आकाश।
पल में पृथ्वी को छुए, गिरि वन करे तलाश।।
शांत सरोवर की लहर, देती है संदेश ।
किसने पत्थर फेंककर, पहुंँचाया है क्लेश।।
सागर में लहरें उठीं, घोर गर्जना साथ ।
किसकी हिम्मत है लड़े, जो टकराए माथ।।
उमर गुजरती जा रही, ज्यों मुट्ठी से रेत।
वैरागी तन सोचता, हो जाता है खेत।।
बगुला और मराल में, नीर-क्षीर का भेद ।
श्वेत-धवल दोनों दिखें, कठिन यही विच्छेद।।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’