याद आतीं हैं बहुत वे.....
याद आतीं हैं बहुत वे, गांँव की अमराइयांँ,
झूलते थे हम सभी मिल, गूँजती किलकारियांँ।
अठखेलियाँ थी नदी की, मेढ़ में हम दौड़ते,
देख हरियाली धरा की, झूमती थीं बालियाँ।
गांँव की बगिया बड़ी थी, पौधों की क्यारी हँसे,
झूमती दिखती रहीं हैं, मस्ति में सब तितलियाँ।
परछि में चैपाल सजती, फैसले सरपंच के,
दुख-दर्द सारे छट गए, जो उठीं थीं सिसकियांँ।
छानियों को जला सूरज, आग बरसाता रहा,
खेलते थे परछियों में, चिटी धप् औ गोटियाँ।
मेघ की प्यारी झड़ी में, पोटली खुलतीं रहीं
ध्यान से सब गुन रहे थे, बच्चों संग दादियाँ।
कपकपाती सर्दियों में, आग आँगन में जले,
घेर कर सब बैठ जाते, खूब होती मस्तियांँ।
प्रेम की वंशी थी बजती, मुग्ध-श्रम की साधना,
ढोल लेकर नाचते थे, सब बजाते तालियाँ ।
शादियों के दौर आते, गान मंगल गूँजते,
रौनकें छाई खुशी की, गूँजती शहनाइयाँ।
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’