साहित्य सृजन की विरासत मुझे अपने सुप्रसिद्ध कहानी एवं उपन्यासकार पिता श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ जी से मिली। मन की संवेदनाओं से ही कहानी, कविता जन्म लेती है, ऐसा सभी का मानना है। मेरा मन हमेशा से परिवार, समाज और देश के बारे में ही सोचता रहा है। बचपन का अबोध मन जब बड़ा हुआ और विसंगतियों की ओर ध्यान आकर्षित हुआ तो अंदर से जो छटपटाहट, वेदना हुई वही कविता के रूप में झरने की भाँति बह निकली। मेरी सारी कविताओं में मेरे अन्र्तमन में चुभे काँटों को आप सहज रूप से देख पाएँगे।
मूलतः मैं बचपन से कहानीकार था, उसी काल में जब कविता की ओर मुड़ा तो मैंने मुक्त छंद से शुरुआत किया। उसमें लय प्रवाह के साथ ही भावों की प्रधानता को मैंने सदा स्थान दिया। मंचों से कवियों की रचनाएँ सुनकर, काव्य गोष्ठियों, संस्थाओं, साहित्यकारों के सानिध्य में आकर सीखने की ललक ने मुझे छांदिक कविता लिखना भी सिखा दिया। मैंने पठन-पाठन की राह को ही अपनाया। अपनी संवेदनाओं के साथ मैं सदा आगे बढत़ा चला गया। साहित्यिक संस्थाओं की गोष्ठियों में सहभागिता और वाट्सएप पटल पर रचनाकारों की रचनाओं ने मुझे सदा आगे बढ़ने और लिखने की प्रेरणा दी है।
मेरे दो काव्य संग्रह ‘‘याद तुम्हें मैं आऊँगा’’, ‘‘संवेदनाओं के स्वर’’ प्रकाशित हो चुके हैं। जिसमें रायपुर के प्रोफेसर श्री देवी सिंह ठाकुर और जबलपुर में श्री विजय तिवारी किसलय, वरिष्ठ साहित्यकार श्री सनातन बाजपेई जी का मुझे सानिध्य मिला। इनके मार्गदर्शन में मेरी काव्य प्रतिभा विकसित हुई। कालान्तर में श्री विजय बागरी के सानिध्य में आया। उन्होंने मुझे सजल गीत दोहे विधा को और सम्पुष्ट करने में मार्गदर्शन दिया। इनके स्नेह का ही परिणाम है जो आज दोहा, गीत सजल की पाँच पुस्तकें हमारे कम्पयूटर में प्रकाशन की राह देख रहीं हैं। नगर के सभी साहित्यकारों का सदा मुझे संबल और स्नेह मिला है। नगर की सभी साहित्यिक संस्थाओं एवं सभी साहित्यकारों के प्रति अपना आभार प्रकट करता हूँ। जिनसे मुझे सदा प्रेरणा मिलती रही है।
साहित्य प्रकाशन में पाँच पुस्तकें प्रकाशित होने के बाद भी मै करोना काल की वजह से प्रकाशन में पिछड़ गया। किन्तु लिखना अनवरत चालू रहा। पाठकों तक पहुँचने के लिए मैं इन्टरनेट की ओर मुड़ गया। करोनाकाल ने साहित्यकारों के लिए ईन्टरनेट के द्वार भी खोले। आन लाईन गोष्ठियाँ, विभिन्न एपों ने हमारी रचनाओं को मानों विश्व व्यापी क्षितिज में पहुँचाने की नई राह दिखलाई। मैं तो इस ओर काफी पहले से अपने कदम बढ़ा चुका था। इन्टरनेट पर अपनी पुस्तकों, रचनाओं का सफलता पूर्वक प्रकाशन 2011-12 में कर चुका था। इस तरह मुझे नई पीढ़ी से जुड़ने का मौका मिला। जिसका मैने भरपूर फायदा उठाया।
मातृ भारती, प्रतिलिपि आदि से जुड़ गया। वर्तमान में मातृभारती में ही 90 हजार से भी अधिक पाठकों से जुड़ गया और इस तरह लगातार हमारे पाठकों की अभिवृद्धि भी होती जा रही है। ईन्टरनेट पत्रिकाओं से तो पूर्व से ही जुड़ने का सौभाग्य मिला और आदरणीय नरेन्द्र कोहली जैसे स्वनामधन्य साहित्यकारों के साथ छपने का अवसर मुझे मिला। कनाडा की वसुधा, साहित्य सुधा, के साथ ही मैंने अपनी पुस्तक ‘एक पाव की जिंदगी’, ‘संवेदनाओं के स्वर’, के साथ ही श्रीमती सरोज दुबे की ‘धुंध के उस पार’ एवं नगर के बुंदेली कवियों का काव्य संग्रह ‘बुंदेली उजियारो’ पुस्तक को नेट में डालने का कार्य भी किया है।
गूगल में यदि हमारे साहित्यानुरागी पाठकगण पुस्तकों के नाम डालकर सर्च करेंगे तो आप कोे निःशुल्क पढ़ने मिल जाएँगी। उनका आकर्षक स्वरूप भी देखने मिलेगा। मेरा मकसद आने वाली पीढ़ियों के लिए अपनी कृतियों को नेट के माध्यम से विश्व पटल पर प्रस्तुत करना है। इसमें मेरे छोटे बेटे गौरव शुक्ल का योगदान रहा है। आज भी मेरी कोशिश रहती है कि अपने जीते जी सभी रचनाओं को नेट पर प्रस्तुत करता जाऊँ। भविष्य मैं आप मेरे पिता श्री रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’ की यादों के झरोखे (आत्म कथा), मनोज के दोहे, मनोज की कविताएँ, मनोज के गीत, मनोज का सजल संसार,स्मृतियों के आँगन में, कनाडा यात्रा संस्मरण, एवं मनोज की कहानियाँ को भी आप जल्द ही पढ़ सकेंगे।
सभी संस्थाओं,,समाचार-पत्र पत्रिकाओं एवं कवि मित्रों का हमें जीवन में भरपूर स्नेह आर्शीवाद संबल मिला है। जो भी मैं प्रस्तुत कर सका हूँ आप सभी का उसमें भरपूर सहयोग एवं प्यार है। अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज देश को जो भी मैं दे सका वह सब आपके सामने प्रस्तुत है। आज मैं जो भी लिख सका हूँ अपने वरिष्ठों कनिष्ठों के मार्गदर्शन एवं स्नेह का ही प्रतिफल है। मै सभी के प्रति अपनी कृतज्ञता एवं आभार व्यक्त कर रहा हूँ।
आपका
मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’