मानव अक्षर, आवाज एवं भाव भंगिमाओं के माध्यम सेअपने भाव प्रकट करता है। इनमें अक्षर अर्थात लिपि ही ऐसा माध्यम है जो एक बार लिखे जाने के पश्चात मूलरूप में सदैव पढ़ा एवं समझा जा सकता है । दैनिक जीवन के अधिकांश कार्य किसी भी लिपि में लेखन द्वारा ही सम्पन्न होते हैं । यही कारण है कि आज इक्कीसवीं सदी में भी अभिलेखों, ग्रन्थों तथा पुस्तकों का मानव जीवन में विशेष स्थान है । पीढ़ी दर पीढ़ी रीति परम्परायें, धर्म-कर्म, आचार-विचार सहित मानव हितकारी साहित्य को अक्षुण्य रहते हुए विकसित होना इसी माध्यम की देन है ।
आज समाज में जो भी लिखा जा रहा है वह सब साहित्य का ही रूप है । सर्वविदित है कि हित के भाव से युक्त ‘साहित्य’ समाज का मार्गदर्शक होता है, इसीलिए सच्चा साहित्यकार भी वही होता है जो अपने आदर्श लेखन से सत्यासत्य का बोध कराता है । आज लेखन की प्रचुरता हमें कहीं कहीं भ्रमित करने लगी है । प्राचीन ग्रंथों में निहित मूलभाव को विकृत रूप में प्रस्तुत कर कतिपय साहित्यकार स्वयं को महिमा मंडित करने में लगे हैं तो कुछ अपने कुतार्किक साहित्य सृजन से फिजा में विष घोलने से बाज नहीं आते । समाज में अच्छाई एवं बुराई दोनों ही विद्यमान रहती हैं लेकिन यह भी सत्य है कि अच्छाई के बलबूते ही आज सामाजिक व्यवस्थाओं का सुचारु परिपालन होता है । यही बात साहित्य लेखन के लिए भी कही जा सकती है । अच्छे साहित्य सृजक आज भी निरन्तर अच्छा लिख रहे हैं और पाठक उनके साहित्य का पठन-चिन्तन कर अपना जीवन आदर्शोन्मुखी बना रहे हैं ।
आज के व्यस्त एवं परिवर्तनशील समाज में साहित्य सृजन एक कठिन साधना से कम नहीं है । समाज में वैचारिक चेतना अंकुरित करने वाले ऐसे साहित्य साधक वंदनीय हैं, जिनका लेखन किसी न किसी रूप में समाज के लिये लाभदायक है । सदियों पूर्व से वर्तमान तक के ऐसे अनेक कवि और साहित्यकार हमारी स्मृति में अपना स्थायित्व प्राप्त करते आ रहे हैं । इस संदर्भ में संस्कारधानी जबलपुर का अपना विशेष दर्जा है । यहाँ राष्ट्रीय एवं श्रेष्ठ साहित्कारों की अंतहीन श्रृंखला है । जिसमें श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ जी का नाम प्रमुखता से इस लिए भी उल्लेखनीय है कि आपको यह विधा अपने पिता लब्धप्रतिष्ठीत साहित्यकार स्व.श्री रामनाथ शुक्ल‘श्री नाथ’ से विरासत में प्राप्त हुई । यह अहम बात है कि श्री मनोज जी ने शब्द शक्ति का महत्व पहचाना और पिता जी का अनुकरण करते हुये साहित्य लेखन को अपनी प्रमुख रुचि बनाया । आपको कहानी, आलेख, निबन्ध, व्यंग्य के साथ-साथ काव्य लेखन में भी महारथ हासिल है । आपकी रचनाओं का प्रकाशन विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में होता आया है वहीं आपकी रचनाओं का प्रसारण आकाशवाणी जबलपुर, रायपुर एवं रीवा से भी हो चुका है । आपके कहानी संग्रह द्वय क्रांति समर्पण’ एवं ‘एक पाव की जिंदगी’ तथा काव्य संग्रह ‘याद तुम्हें मैं आऊॅंगा’ पहले ही समाज की दिशा बोधी कृतियाँ बन चुकी हैं । विजया बैंक में कार्य करते हुए भी आपकी रचनाधर्मिता का निर्बाध चलना आपकी विशुद्ध साहित्यिक अभिरुचि भी कहा जा सकता है ।
जहाँ तक मैंने मनोज जी को जाना है, वे एक सरल-सहज एवं मानवीय मूल्यों पर आधारित जीवन जीने वाले अच्छे इन्सान हैं । यही कारण है कि उनकी अच्छाई, सिद्धान्त और सोच उनके साहित्य में प्रतिबिम्बित होती है । इनके द्वारा गद्य एवं पद्य उभय विधाओं में लिखी गई रचनाओं को पढ़ने से ज्ञात होता है कि सामाजिक विष मताओं पर केन्द्रित आपके सृजन में सबसे ज्यादा ‘आक्रोश’ परिलक्षित हुआ है । नैतिक मूल्यों पर हृदय स्पर्शी रचनाओं में आपके अतीत की झलक दिखाई देती है । इस तरह भोगा हुआ जीवन अनुभव, अध्ययन एवं व्यवहारिक ज्ञान से आपका सृजन गुरोत्तर परिपक्व हुआ है ।
श्री मनोज जी का द्वितीय काव्य संग्रह ‘‘ संवेदनाओं के स्वर ’’ प्रकाशन पूर्व पढ़ने का सौभाग्य मिला तो मैंने देखा कि इस संग्रह में विविध सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक एवं राष्ट्रीय विषयों पर आधारित रचनाओं का समावेश किया गया है । ऐसे अनेक विषयों पर भी कविताएँ लिखी गई हैं जिन पर यदाकदा ही लेखन हुआ है। माँ सरस्वती की वंदना से लेकर सूक्तियाँ , भ्रष्टाचार, आतंकवाद, राष्ट्रप्रेम, राष्ट्रभाषा हिन्दी, प्रकृति, धर्म,वर्षा, बसंत, ग्राम्य चित्रण, विरह, प्रेम, भक्ति, बेटियाँ, तुलसी जैसे अनेकानेक विषयों पर सृजित विविध रंग एवं रसों की रचनाओं से यह संग्रह रुचिकर बन पड़ा है।
इनके द्वारा माता-पिता और आजी माँ के प्रति व्यक्त संवेदनाएँ यथार्थ लगती हैं -
अपने अतीत में /झाँकती माँ/अपनी आँखों से संवेदना के /झर-झर आँसू बहाती है /और संवेदनाओं के द्वार पर /सिर्फ अपने आपको /अकेला खड़ा पाती है ।
राजनीति के संदर्भ में एक काव्यांश देखें -
हित चिंतक राजा जब होगा, प्रजा साँस सुख की लेगी ।
स्वार्थ मोह में लिप्त रहा तो, प्रजा दुखों को झेलेगी ।।
राम सेतु और राम के अस्तित्व पर मनोज जी की भावनाएँ देखें -
युग बदले पर राम न बदले, राम समाये जन मन में ।
उत्तर, दक्षिण, पूरब,पश्चिम, राम बसे हैं कण कण में ।।
आपकी लेखनी जीवन दर्शन पर बड़ी सटीक चली है -
प्रेम और विश्वास ही, जीवन का आधार ।
यदि इनको ही खो दिया, तो जीवन बेकार ।।
ऐसी वाणी बोलिये, प्राणी खुश हो जाय ।
बोली की ही शिष्टता, सबको सुख पहुँचाय ।।
आशा और विश्वासों की, डोर में बंधो ।
दुखियारी आँखों की, कोर में बसो ।।
आज की संस्कृति पर क्षोभ जताते हुए उन्होंने लिखा है -
तुलसी नानक और कबीरा, बंद पड़े तहखानों में ।
मस्ती, लोफर और आवारा, बिकते है दूकानों में ।।
कविता सृजन को आपने कुछ इस तरह परिभाषित किया है -
द्वेश,ईर्ष्या और नफरत को, जो दफना दे कविता है ।
प्रेम, भाई-चारा फैला दे , वही समझिये कविता है ।।
श्री मनोज जी ने गांधी संग्रहालय में रखी वस्तुओं की आत्माभिव्यक्ति के माध्यम से गांधी जी की कल्पना सत्य-अहिंसा सर्वोदय के विपरीत भारत की बदहाल तस्वीर का आईना इस तरह दिखाया -
अहिंसा के सीने में खुलके, हिंसा ने खेली थी होली ।
गांधी जी को छेद गई थीं, मैं मनहूस अभागिन गोली ।।
इस तरह काव्य संग्रह के माध्यम से श्री मनोज जी की सरल भाषा शैली में कही गई बातें पाठकों के हृदय तक सीधी पहुँचती हैं । बीच-बीच में बुंदेली भाषा का प्रयोग उनका अपनी माटी से जुड़े होने का साक्ष्य प्रस्तुत करता है। धर्म संस्कृति एवं साहित्यमय वातावरण में पले-बढ़े मनोज जी की रचनाएँ भी निश्चितरूप से इन्हीं गुणों की वाहक बनकर हमारे सामने आईं हैं । स्वयं मनोज जी का यह मानना है कि सार्थक लेखन वही होता है जो पाठकों के मन में छोटी सी जगह बना सके और समाज को लाभान्वित भी कर सके।
श्री मनोज कुमार शुक्ल ‘मनोज’ जी का काव्य संग्रह ‘‘संवेदनाओं के स्वर ’’ निश्चित रूप से साहित्य जगत का पठनीय एवं दिशा बोधी काव्य संग्रह बने, ऐसी मेरी शुभकामनाएँ एवं कृति प्रकाशन पर मनोज जी को हार्दिक बधाई ।
डॉ.विजय तिवारी ‘किसलय’
प्रसिद्ध साहित्यकार एवं पत्रकार ‘विसुलोक’