एक पाव की जिन्दगी
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
राम नाथ शुक्ल 'श्री नाथ'
“ननकू आया ... ननकू आया।”
उस सकरी गली में दूर खड़ा चड्डी बनियान पहिने, पांच साल का बालक ताली बजा, चिल्ला पड़ा। तभी पास वाले, उससे दो साल बड़े, बालक ने उसे डाँटते हुये कहा।
“चुप साले। .... दिलीप कुमार कह, नहीं तो, नाराज हो जायेगा।”
“दिलीप आया।” पहिले वाले ने भूल सुधार कर उसी मुद्रा में दोहराया। चिरपरिचित आवाज पूरी गली और घरों में गूँज गयी “कान छिदा लो, कान।”
सालों से यह आवाज शहर की सकरी - गंदी बस्तियों में रहने वाले निर्धनों में गूँज रही है। ऐसी अनेक बस्तिया हैं। यहां क्रम से, महीना पन्द्रह दिन में यह आवाज गूँजती है। और लोग तमाशा देखने खपरैल के कच्चे घरों से निकल बाहर आ जाते हैं। ‘हर्रा लगे ना फिटकरी।’ मुफ्त का तमाशा देखने जो मिलता है। सुनने देखने वालों को तो आनंद आता ही है। ननकू भी अपने करतब भाव - विभोर मुद्रा में दिखाता है ।
“कान छिदालो, कान।”
ननकू का प्रमुख व्यवसाय है, बालक - बालिकाओं के नाक, कान छेदना। वह बड़ी युक्ति से, यह कार्य करता है इसलिये साधारण सी तकलीफ भर होती है। घाव जल्दी भर जाते हैं। अतः उस पर सभी का विश्वास जम गया है। धोती - कुर्त्ता उसकी प्रिय पोशाक है। पूरी गृहस्थी हमेशा दो थैलों में भरी, उसके कन्धों पर लटकी रहती है। वह दिन भर कहीं भी रहे, रात्रि, अपने ठिकाने पर काटता है। चार ईंटों का चूल्हा सदा उसकी प्रतीक्षा करता है। खुली हवा में सोना, सेहत के लिये फायदे मंद समझता है। धरती मां का बिछौना आकाश पिता का ओढ़ना उसे सुख की नींद सुलाता है। वह कहता, आखिरी सभी की यही गति होना है , सो पहिले से प्रेक्टिस डाल ली, - बाद में कष्ट न होगा। हाँ, बरसात ठंड में कुछ बदलाव आ जाता है। पानी से दीवारों की रक्षा के लिए लोग जो दो तीन-फुट की बालकनी या ढाढ़ निकालते हैं, और जहाँ, रात में कुत्ते वहाँ अपना अधिकार बना बैठते हैं। उन्हीं के आजू - बाजू वह भी सो जाता है। उनमें भाईचारे की भावना है। वफ़ादार हैं, वो चौकसी भी रखते हैं। फिर उसके पास, ऐसी कोई सम्पत्ति भी नहीं, जिसकी चोरी का डर हो। साली, दस बीस रुपये की पंूजी से आगे बढ़ नहीं पाती। फिर ज्यादा कमाकर क्या करेगा ? किराना दुकान से एक पाव आटा रोज लाता है। कभी कभार कड़की रही तो दूसरे दिन दाम चुका देता दुकानदार को भी विश्वास है, ननकू ईमानदार है। यदि डूबा, तो पाव भर की ही रिस्क रहेगी।
दशमलव प्रणाली के इस युग में उसे अपने जमाने का पाव अच्छा लगता है। अपने हाथ से पका खाना उसे अच्छा लगता है। अचार - सब्जी यदि किसी अच्छे घर से मिली तो ठीक - अन्यथा नमक से स्वादिष्ट और कोई व्यजंन है ही नहीं। दो ही व्यसन हैं, पाव भर की रोटी, दो पनामा सिगरेट। पान तम्बाखू अन्य कोई भी व्यसन नहीं। अब तक लड़कों की टोली इकट्ठी हो गयी थी। कोई कान छिदाने वाला ग्राहक मिले ना मिले। ननकू का नाच गाना तो होगा ही। बालक घेरकर उसे आगे नहीं बढ़ने देते।
“दिलीप कुमार गाना गाओ... जिया भरमा के”...
ननकू इनकी जिद पूरी किये बिना एक पग आगे नहीं बढ़ सकता। सो बचपन का ननकू बड़ी अदा से, कमर मटका, पैर थिरका, मधुर तान छेड़ता है।
“ओ... अँखियाँ मिला के, जिया भरमा के, चले नहीं जाना। ओय ..., चले नहीं जाना।” ...
चार-पांच बार कमर मटकाई। पाँव थिरकाये। लड़के खुश हो गये। अपने - अपने घर के दरवाजे पर खड़ी युवतियां, वृद्धायें सबका मनोरंजन हो गया। वह अब आगे बढ़ेगा। आगे और भी लोगों का मनोरंजन करना है। काम मिले ना मिले। सभी प्रतीक्षा में होंगे।
“कान छिदा लो कान।”...
दिलीप कुमार सम्बोधन उसे प्रिय है। अपने को वह उस हीरो से कम नहीं आंकता। ननकू भी कोई नाम में नाम है। इस नाम से जिसने पुकारा वो ना नाच देख सकते। ना गाना सुन सकते। वह अपने जमाने के गानों को सर्वोत्कृष्ट मानता है। उसका संगीत, माधुर्य, बोल सीधे दिल पर असर डालते थे। आज के छिछोले गानों में कोई दम है ? तेरी नानी मरे तो मैं क्या करूं? “तूं मस्त - मस्त है...। अटरिया पे ...। खिसकाये लो खटिया ... छिः ...।” ये गाने भी कोई गाने हैं। सब चौपट कर रहे हैं। लड़का - लड़कियों के संस्कारों में विष घोल रहे हैं। ये बजवाने वाले मूर्ख हैं। डूब मरें, चुल्लू भर पानी में। गाना तो यह है - “जब तुम ही चले परदेस, लगा के ठेस, ओ प्रीतम प्यारा, दुनिया में कौन हमारा ?...”
ननकू सबको खुश रखता है। पर स्वतः ?
उससे जब कोई परिवार के बारे में पूछे तो कहता, हैजा में सब एक दिन में स्वाहा हो गये। घर के बारे में कहता - घर - द्वार चलाने साहूकार से लिये कुछ रुपये की किस्तों में चला गया। दोनों बातें सही हैं। उसे कहते हुये ना दुख होता, पश्चाताप्। सहजभाव से कहता है।
आज ननकू का दूसरी बस्ती में दौरा था।
“कान छिदा लो कान।”
लड़कों की टोली जमा होने लगी। अचानक रंग में भंग हो गया। एक शराबी झूमता आ गया। नशे में धुत।
“एै बुड़्ढे़...साला, इस उम्र मैं नाचता गाता... गंदे ... पुराने गाने, कमर लचका... लचका कर गाता ...साला... कितना कमाया ... ला...दारू पीऊँगा...”
ननकू हाथ जोड़ खड़ा हो गया। उसे मालूम था, यह दुष्ट प्रकृति का है। हमेशा दारू पीकर अपनी मर्दानगी बताता है। कोई ना मिला तो घरवाली पर गुस्सा उतारता। सो दुष्ट की वंदना ही अच्छी। बोला -
“अभी आया हूँ। बोहनी भी नहीं हुई।”
जो व्यक्ति झगड़े पर आमादा हो, वह कोई ना कोई बहाना खोज लेता है।
“साला ... उस दिन तेरा नाच मेरी घरवाली देख हँस रही थी ... हँस रही थी कि नहीं ?” “साला किशन कन्हैया बनता है।”
“नहीं भैया।”
“साला, नहीं कहता ... और दो - तीन थप्पड़ उसने जड़ दिये।” चल यह एक गा तो माफ कर दूँगा ...खटिया सरकाइलेव... गा ...”
“भैया, मैं नहीं गा सकता।” विनम्रता से ननकू से कहा।
इस पर वह और ताव में आया और लात - घूसों के, अनेक प्रहार निर्दयता से करता रहा। तीन - चार बड़े लड़कों ने जबरन पकड़ उसे घर भीतर किया। उस दिन ननकू एक घंटा वहीं बैठा सिसकता रहा। सभी नाच - गाना देखने - सुनने से वंचित रह गये। उसने संकल्प, लिया, कि वह मर जाय, पर इस बस्ती ना आयेगा। भले ही कितनी ही नुकसानी हो।
उस घटना के दूसरे दिन ननकू को डायरिया हो गया। इकदम छुट्टा दस्त। वह अपना डेरा उठा, सार्वजनिक शौचालय के पास चला गया। वहीं सुभीता रहेगा। सब लोगों को विश्वास हो गया, कि इस बार ननकू नहीं बचेगा। जब ठिकाना बदला, उसकी दस रुपये की पूँजी थी। वह किसी ने पार कर दी। अब दवाई को भी मोहताज। उसने अपनी करुण गाथा असमाजिक समझे जाने वाले एक दयालु को सुनाई। उसने तरस खाकर कई लोगों से पच्चीस रुपये चंदा इकट्ठा किया। साथ जा कर डाक्टर से दस की दवाई दिलाई। बाकी पन्द्रह रुपयों की परोपकार के एवज में, दारू पी जश्न मनाया। ननकू इस बार भी मरा नहीं। मौत को पछाड़ वह पुनः अपने कर्म क्षेत्र में जीवित आ गया। “कान छिदा लो कान” की आवाज़ गली के छोर से पुनः गूँजने लगी।
जिसने देखा, दाँतों तले अंगुली दबा भाैंचक्के रह गये। अरे फिर बच गया यह अभागा। जाने किस धातु का बना है ? हर बार बच जाता है।
संसार तरह - तरह के इंसानों से भरा है। एक से एक अजूबे हैं। उसकी जीती जागती तस्वीर ननकू। जो आज भी दिलीप कुमार की शक्ल में संकरी गलियों में देखा जा सकता है। लचकती - बलखाती बूढ़ी कमर। थिरकते पाँव। “कान छिदा लो कान” की टेर के साथ। अपनी एक पाव की जिन्दगी जी लेते हैं।
रामनाथ शुक्ल ‘श्रीनाथ’